
अजय गुप्ता
नवरात्रि सदियों से शक्ति की उपासना का पर्व रहा है। घर-घर में कलश स्थापना, दुर्गा पूजा और भजन-कीर्तन की परंपरा आज भी लाखों परिवार निभाते हैं। कभी मां, बहनें और बेटियां मिलकर जागरण करतीं, गीत गातीं और घर को भक्ति में रंग देती थीं। लेकिन अब तस्वीर तेजी से बदल रही है।
शहरी इलाकों में नवरात्रि का चेहरा डांडिया और गरबा नाइट्स बन गए हैं। बड़े-बड़े मैदानों, क्लबों और होटलों में टिकट और पास के जरिए आयोजन होते हैं। रोशनी, DJ और फिल्मी गानों पर थिरकती भीड़ ही आजकल नवरात्रि की पहचान बनती जा रही है।
आख़िर क्यों बदली तस्वीर?
विशेषज्ञ मानते हैं कि यह बदलाव बाजारवाद और नई पीढ़ी की पसंद का नतीजा है। पूजा-पाठ की गंभीरता से दूर होते युवा नवरात्रि को एक मनोरंजन महोत्सव की तरह देखने लगे हैं। डांडिया नाइट्स कंपनियों और आयोजकों के लिए बड़ा कारोबारी मौका भी बन चुके हैं।
क्या डांडिया दुर्गा पंडाल की जगह ले लेगा?
पूरी तरह नहीं। दुर्गा पूजा और पंडाल हमारी आस्था और परंपरा की जड़ है। यह केवल आयोजन नहीं, बल्कि शक्ति की साधना है। मगर खतरा इतना ज़रूर है कि अगर संतुलन नहीं साधा गया तो आने वाली पीढ़ियां नवरात्रि को केवल “डांडिया फेस्टिवल” मान लेंगी।

त्योहार की आत्मा भक्ति है और सजावट उसका रंग। डांडिया-गरबा संस्कृति का हिस्सा बने रहें, लेकिन घर-घर की पूजा और पंडालों की भव्यता ही नवरात्रि की असली पहचान रहनी चाहिए।









