भारत के राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम्’ की रचना के 150 वर्ष पूरे हो चुके हैं। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय (बंकिमचंद्र चटर्जी) की यह अमर रचना उस युग की पुकार थी, जब हर भारतीय के हृदय में स्वतंत्रता का सपना पल रहा था। इस गीत ने क्रांति की ज्वाला भड़काई, राष्ट्रभक्ति को स्वर दिया और माँ भारती के चरणों में असीम श्रद्धा अर्पित की। अंग्रेजी हुकूमत के दौर में यह स्वर साहस का प्रतीक बना और आज भी ‘वंदे मातरम्’ हर भारतीय के हृदय में मातृभूमि के प्रति प्रेम का अमर गीत बन गूँजता है।
वंदे मातरम्: राष्ट्रभक्ति का अमर स्वर
‘वंदे मातरम्’ केवल एक गीत नहीं, बल्कि भारत की आत्मा की धड़कन है। वंदे मातरम् की रचना बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने की थी। यह पहली बार 7 नवंबर 1875 को उनकी साहित्यिक पत्रिका ‘बंगदर्शन’ में प्रकाशित हुआ था। बाद में इसे उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘आनंदमठ’ (1882) में शामिल किया गया। इस उपन्यास ने न केवल भारतीय साहित्य में नया युग प्रारंभ किया बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन की चेतना को भी जन्म दिया।
अंग्रेजों के लिए भय का प्रतीक
1905 में जब स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत हुई, तब ‘वंदे मातरम्’ उसका युद्धघोष बन गया। कोलकाता में ‘बंदे मातरम् संप्रदाय’ की स्थापना हुई, जिसके सदस्य मातृभूमि को देवी स्वरूप मानकर हर रविवार प्रभात फेरी में यह गीत गाते थे। इस आंदोलन में रवींद्रनाथ टैगोर, बिपिन चंद्र पाल, और अरविंदो घोष जैसे महान नेता शामिल हुए।
(फोटो साभार: फ्रीपिक)
1906 में ‘वंदे मातरम्’ नामक अखबार की शुरुआत हुई जिसने देश में आत्मनिर्भरता, एकता और स्वतंत्रता का संदेश फैलाया। ब्रिटिश शासन इस गीत से इतना भयभीत था कि उसने इसे स्कूलों में गाने पर प्रतिबंध लगा दिया। छात्रों को सजा दी गई, लेकिन गीत की गूंज को कोई दबा न सका।
विदेश में पहली बार फहराया गया ‘वंदे मातरम्’ वाला तिरंगा
1907 में मैडम भीकाजी कामा ने जर्मनी के स्टटगार्ट में भारत का पहला तिरंगा फहराया, जिस पर ‘वंदे मातरम्’ अंकित था। यह उस युग का वह क्षण था जब यह गीत भारत की सीमाओं से बाहर भी स्वतंत्रता का प्रतीक बन गया।
भारत की स्वतंत्रता के बाद, 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा में पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने घोषणा की कि ‘वंदे मातरम्’ को ‘जन गण मन’ के समान ही सम्मान और दर्जा प्राप्त होगा। यह राष्ट्र के लिए उस गीत के योगदान की आधिकारिक मान्यता थी।
कभी ‘इस्लाम विरोधी’ तो कभी ‘सेकुलरिज्म’ के नाम पर अस्वीकार करते आ रहे मुस्लिम
जब यह गीत स्वतंत्रता की पहचान बन रहा था, 1908 में मुस्लिम लीग ने इसके विरोध की शुरुआत की। अमृतसर अधिवेशन में सैयद अली इमाम ने कहा कि यह गीत इस्लाम विरोधी है, क्योंकि इसमें मातृभूमि की तुलना देवी-देवताओं से की गई है। बाद में खिलाफत आंदोलन के दौरान यह भावना और गहरी होती गई।
इस विरोध के बीच, 1937 में कॉन्ग्रेस ने जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति बनाई, जिसमें मौलाना अबुल कलाम आजाद भी शामिल थे। आजाद ने गीत का अध्ययन किया और निष्कर्ष दिया कि इसके शुरुआती दो पद केवल मातृभूमि की वंदना करते हैं और इनमें किसी मजहबी भावना का विरोध नहीं है। नतीजतन, कॉन्ग्रेस कार्यसमिति ने निर्णय लिया कि राष्ट्रगीत के रूप में केवल दो ही पद स्वीकार किए जाएँ।
नेहरू की अध्यक्षता में कॉन्ग्रेस ने संक्षिप्त संस्करण अपनाने का फैसला किया था, जिसमें से जानबूझकर माँ दुर्गा की स्तुति करने वाले छंद हटा दिए गए थे। ऐसा करते हुए कॉन्ग्रेस ने अपने सांप्रदायिक एजेंडे के लिए फैजपुर अधिवेशन में वंदे मातरम् के छोटे स्वरूप को अपनाया।
कॉन्ग्रेस कार्यसमिति से जुड़े मिनट्स में फैसले का जिक्र
जवाहर लाल नेहरू ने अली सरदार जफरी को पत्र लिखा था। उसमें उन्होंने लिखा था, “मैं समझता हूँ कि पूरा गाना किसी को ठेस पहुँचाने वाला नहीं है। लेकिन मैं ये भी सोचता हूँ कि ये गाना राष्ट्रगान के ‘लायक’ नहीं है। इसके कुछ शब्द लोगों को समझ में नहीं आएँगे। क्योंकि इसमें व्यक्त भावनाएँ आज के राष्ट्रवाद के अनुकूल नहीं है। हमें आसान शब्दों वाले दूसरे राष्ट्रगान की तलाश करनी चाहिए।”
अली सरदार जफरी को लिखे पत्र में नेहरू का वंदे मातरम् के प्रति स्टैंड
यही नहीं, नेताजी सुभाष चंद्र बोस को लिखे नेहरू की 1937 की चिट्ठी में भी इस मुद्दे को लेकर सफाई दी गई है। चिट्ठी में नेहरू ने कथित तौर पर कहा था कि वंदे मातरम के बैकग्राउंड से मुस्लिमों को नाराज कर सकती है। एक सितंबर 1937 को लिखी इस चिट्ठी में नेहरू ने कटुता से लिखा कि ‘वंदे मातरम’ के शब्दों को किसी देवी से जोड़कर देखना बेतुका है। उन्होंने व्यंग्यपूर्ण ढंग से यह भी कहा कि ‘वंदे मातरम’ राष्ट्रीय गान के रूप में उपयुक्त नहीं है। 20 अक्टूबर 1937 को भी नेहरू ने नेताजी बोस को पत्र लिखकर दावा किया कि ‘वंदे मातरम’ की पृष्ठभूमि मुस्लिमों को नाराज कर सकती है।
नेहरु के पत्र में वंदे मातरम् को लेकर उनके विचार
फिर भी, मोहम्मद अली जिन्ना ने 1938 में The New Times of Lahore में वंदे मातरम् का विरोध करते हुए लिखा कि मुस्लिम किसी भी रूप में इस गीत को स्वीकार नहीं कर सकते। धीरे-धीरे यह विरोध धार्मिक से राजनीतिक रंग में बदल गया और देश विभाजन तक पहुँच गया।
आज भी समय के साथ नाम और बहाने बदल गए हैं, लेकिन मानसिकता वही है। कभी इसे इस्लाम विरोधी कहा जाता है, तो कभी सेकुलरिज्म के नाम पर अस्वीकार किया जाता है। बिहार विधानसभा में ओवैसी की पार्टी के विधायकों ने वंदे मातरम् गाने से इनकार किया, तो समाजवादी पार्टी के सांसद शफीकुर्रहमान बर्क ने संसद में इसे ‘इस्लाम के खिलाफ’ बताया।
बर्क का यह रवैया नया नहीं था, 1997, 2013 और 2019 में भी उन्होंने यही तर्क दोहराया। इसी तरह राजद नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी ने कहा, “जो एकेश्वर में विश्वास रखता है, वह वंदे मातरम् नहीं गा सकता।”
यह सोच केवल राजनीति तक सीमित नहीं रही। 2019 में देवबंद के मदरसे जामिया हुसैनिया के मुफ्ती तारिक कासमी ने आदेश जारी कर वंदे मातरम् और भारत माता की जय बोलने पर पाबंदी लगा दी, यह कहते हुए कि ‘इस्लाम में केवल अल्लाह की इबादत होती है।”
वंदे मातरम्: एक स्वर जो आज भी भारत की माटी से गूँजता है और हर बार कहता है ‘माँ, तुझे प्रणाम’
वंदे मातरम् किसी धर्म, मजहब या राजनीति का विषय नहीं, यह भारत की आत्मा की आवाज है। यह वह गीत है जिसने गुलामी की बेड़ियों में जकड़े लोगों को आजादी का सपना दिया। इसे गाना किसी पूजा का नहीं, बल्कि देश की मिट्टी के प्रति सम्मान का प्रतीक है।
150 वर्षों के बाद भी ‘वंदे मातरम्’ उतना ही प्रासंगिक है जितना स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में था। यह हर भारतीय के हृदय में गर्व, प्रेम और देशभक्ति की भावना जगाता है। यह गीत हमें याद दिलाता है कि हमारी मातृभूमि के प्रति समर्पण ही सच्चा राष्ट्रधर्म है।







