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दिल्ली धमाके के अगले दिन PM मोदी की भूटान यात्रा: प्रधानमंत्री की इस यात्रा को क्यों नहीं किया जा सका कैंसिल, जानिए कारण

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भूटान की राजधानी थिंफू के लिए मंगलवार (11 नवंबर 2025) को दो दिवसीय यात्रा के लिए निकल गए हैं। इस यात्रा के जरिए दोनों देशों के बीच दोस्ती गहरी करने पर ध्यान केंद्रित किया गया है। इसके साथ ही प्रधानमंत्री ने दिल्ली में लालकिले के पास हुए ब्लास्ट के दोषियों के लिए कड़ा संदेश दिया।

पीएम मोदी ने कहा कि वे भारी मन से भूटान आए हैं। उन्होंने ब्लास्ट में मरने वाले 10 लोगों के लिए शांति प्रार्थना की बात कही। साथ ही ये भी संदेश दिया कि दोषियों को किसी भी हाल में छोड़ा नहीं जाएगा।

दिल्ली में ब्लास्ट जैसे राष्ट्रीय संकट के समय देश के नेताओं के यात्रा समेत हर गतिविधि पर दुनिया की नजर रहती है। असल में ध्यान से देखा जाए तो यह यात्रा एक सोच-समझकर बनाई गई रणनीति जैसी दिखती है, जिसके तहत संकट से निपटने और भारत की विदेश नीति और लंबे समय की सुरक्षा जरूरतों के बीच संतुलन बनाया गया। हालाँकि कुछ लोगों ने इतनी जल्दी विदेश यात्रा पर जाने के फैसले पर सवाल भी उठाए।

🎥 As PM @narendramodi is enroute to Thimphu, Bhutan, let us watch highlights of the expansive and multisectoral deep rooted 🇮🇳-🇧🇹 partnership. pic.twitter.com/AHU4FxzO9R— Randhir Jaiswal (@MEAIndia) November 11, 2025

दिल्ली धमाके के तुरंत बाद यात्रा के पीछे की स्थिति

10 नवम्बर, 2025 की शाम दिल्ली के लाल किला मेट्रो स्टेशन के पास काफी भीड़भाड़ वाले चौराहे पर कार में भीषण विस्फोट हुआ। विस्फोट में 10 लोगों की जान जाने के साथ, लोगों में दहशत और सतर्कता का माहौल पैदा हो दिया। इस हादसे में कई लोग अब भी घायल हैं।

प्रधानमंत्री मोदी ने पीड़ितों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हुए देशवासियों को जाँच का आश्वसन दिया है। उन्होंने गृह मंत्री अमित शाह और अन्य अधिकारियों के साथ स्थिति की तुरंत समीक्षा की ताकि राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (NIA) और राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (NSG) जैसी सुरक्षा और फॉरेंसिक एजेंसियों को तैनात किया जा सके, जिससे जाँच और सुरक्षा दोनों सुनिश्चित हों।

इतिहास बताता है कि अचानक संकट के समय राज्यनीति में किए गए बदलाव कभी-कभी दुश्मनों को देश की क्षमता परखने का साहस दे सकते हैं। मोदी ने यह दिखाया कि किसी हमले का सदमा या अव्यवस्था भारत की प्राथमिक विदेश नीति हितों से ऊपर नहीं होगी। उन्होंने भूटान यात्रा जारी रखकर यह संदेश दिया।

पड़ोस में, जहाँ चीन और पाकिस्तान भारत की दबाव झेलने की क्षमता पर नजर रखते हैं, वहाँ पर यह यात्रा बेहद अहम है। घबराहट दिखाने के बजाय स्थिरता दिखाना एक छोटा लेकिन प्रभावी कदम है।

थॉमस मेसजारोस और लॉरेंट डाने के अनुसार, जब किसी फैसले लेने वाली टीम को अचानक कोई अप्रत्याशित या मुश्किल स्थिति का सामना करना पड़ता है तो ‘असाधारण समस्याओं से सामना होने की स्थिति’ के चलते उलझन पैदा हो जाती है। यह उलझन सोचने और सही कदम उठाने की प्रक्रिया को बिगाड़ देती है।

यह स्थिति कभी उलझे हुए संदेशों, कभी अधिक प्रतिक्रिया या देरी के रूप में सामने आती है और ये सब मिलकर टीम की कमजोरी का संकेत देते हैं जिससे विरोधी ताकतें फायदा उठा सकती हैं।

मेजारोस-डैनेट ढाँचे के अनुसार, सदमा एक अचानक और गहरा झटका होता है जो सामान्य सोचने-समझने की क्षमता को प्रभावित करता है। इसके उलट, संकट एक ऐसी प्रक्रिया है जो पूरे सिस्टम को बदल सकती है।

ऐसा ट्रॉमा दिमाग को तार्किक प्रक्रिया को छोड़कर उस स्थिति में ले जाता है जिसे लेखक ‘मानसिक जड़ता’ (psychic sideration) कहते हैं। यानी विचार और व्यवहार का पक्षाघात। इसका परिणाम राष्ट्रीय स्तर पर नीति पक्षाघात होता है, जब राजनीतिक संस्थाएँ हिचकिचाहट में फँस जाती हैं और बदलाव की बजाय ठहरने का शिकार हो जाती हैं।

इतिहास के उदाहरण बताते हैं कि यह मनोवैज्ञानिक बोझ समाज को कमजोर कर देता है। संयुक्त राज्य अमेरिका ने 11 सितम्बर के हमलों के बाद पहले ‘रणनीतिक और सामरिक शून्य’ का सामना किया, फिर धीरे-धीरे एक संगठित प्रतिक्रिया तैयार की। बाद में इराक में संस्थागत पक्षाघात और फैसला लेने की क्षमता के अस्त-व्यस्त होने से नीति का अधिक विस्तार हुआ जिससे हालात और बिगड़े।

इसी तरह, भारत 1962 के चीन-भारत युद्ध के दौरान आत्ममंथन और सतर्कता में उलझ गया और वर्षों तक अपनी सीमाओं से बाहर शक्ति प्रदर्शित करने में हिचकिचाता रहा। इन सभी उदाहरणों से स्पष्ट है कि जब भावनात्मक भ्रम राज्यनीति पर हावी हो जाता है, तो उसके परिणाम गंभीर होते हैं। समाज कमजोर पड़ता है, संस्थाएँ ठहर जाती हैं और दुश्मन इसका फायदा उठाते हैं।

पीएम मोदी के लिए यह दिखाना बेहद जरूरी था कि सदमे और संकट के बीच भी शासन की प्रक्रिया जारी रह सकती है। उनकी भूटान यात्रा एक प्रतीकात्मक संदेश थी कि आंतरिक अशांति के बावजूद भारत अपने कूटनीतिक और क्षेत्रीय दायित्वों को पूरा करता रहेगा।

क्राइसिस थ्योरी में इसे ‘संकट में प्रवेश का प्रबंधन’ कहा जाता है। इसका उद्देश्य होता है कि घबराहट फैलने से पहले पूरे सिस्टम को स्थिर किया जाए। जो नेता इस शुरुआती दौर में निर्णायक कदम उठाते हैं वे बाजारों, नौकरशाही और लोगों के बीच अनिश्चितता को फैलने से रोकते हैं।

सदमे के जवाब में रणनीतिक निरंतरता

मेजारोस और डैनेट के अनुसार, एक सकारात्मक सदमा असल में संकट को नियंत्रण करने की क्षमता रखता है। इसे वे ‘मानसिक सूजन-रोधी’ (psychic anti-inflammatory) कहते हैं, जो स्थिति को बिगड़ने से रोकता है।

राजनीति में इसका अर्थ है कि नेता निर्णायक और स्थिरता लाने वाले कदम उठाकर राष्ट्रीय माहौल को पहले जैसा कर सकता है। प्रधानमंत्री मोदी की भूटान यात्रा ठीक उसी तरह का काउंटर-शॉक थी। इसने उस डर और अटकलों के चक्र को तोड़ दिया जिसे हमले ने पैदा करने की कोशिश की थी और उसकी जगह व्यवस्था और सामान्यता की तस्वीर पेश की।

इतिहास में भी इससे जुड़े कई उदाहरण मौजूद हैं

1940 में लंदन ब्लिट्ज के दौरान विंस्टन चर्चिल ने अपने सार्वजनिक कार्यक्रम जारी रखे और क्षतिग्रस्त इलाकों में घूमे, ताकि जनता को दिखा सकें कि सरकार अब भी मौजूद और सक्रिय है।

2011 में अरब स्प्रिंग के जवाब में मोरक्को के राजा मोहम्मद VI ने सबको चौंकाते हुए अपनी व्यक्तिगत शक्तियाँ कम कर दीं और संवैधानिक बदलावों की घोषणा की। इस कदम ने ‘सामाजिक-राजनीतिक संकट को कम किया’ और अशांति को समाप्त कर दिया।

क्या होता अगर पीएम मोदी रुक जाते

अगर प्रधानमंत्री मोदी अपनी यात्रा को स्थगित कर देते तो उसका प्रतीकात्मक असर तुरंत और नकारात्मक होता। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे भारत के रक्षात्मक आत्ममंथन के रूप में देखा जा सकता था जबकि घरेलू स्तर पर यह चिंता और असुरक्षा का संकेत देता। ऐसे संकेत इतिहास में कई बार भारी रणनीतिक नुकसान का कारण बने हैं।

1986 की चेर्नोबिल त्रासदी में सोवियत नेतृत्व की हिचकिचाहट और चुप्पी ने उनकी प्रतिष्ठा को देश और विदेश दोनों में नुकसान पहुँचाया। इसी तरह, 1993 के मुंबई सिलसिलेवार धमाकों में भारत की देर से आई राष्ट्रीय प्रतिक्रिया ने असुरक्षा का भाव पैदा किया जिससे वर्षों तक सीमा-पार नेटवर्कों को प्रोत्साहन मिला।

1979 के ईरान बंधक संकट में अमेरिका की शुरुआती अनिश्चितता ने तेहरान को आत्मविश्वास दिया और खाड़ी क्षेत्र में अमेरिकी रोकथाम की क्षमता को कमजोर किया।

इसके विपरीत वे देश जो संकट के समय आगे बढ़ते हैं, अक्सर अधिक मजबूत होकर निकलते हैं। उदाहरण के लिए 1973 के योम किप्पुर युद्ध में इजराइल का नेतृत्व पहले तो झटके में आया, लेकिन तुरंत सदमे से निकलकर जवाबी कार्रवाई में जुट गया और रणनीतिक पहल बनाए रखी। यही सिद्धांत कूटनीति में भी लागू होता है। दबाव के बीच कई कार्य करने की क्षमता संस्थागत परिपक्वता और मानसिक तैयारी का संकेत देती है।

नेतृत्व की छवि और निदान को लेकर तर्क

विदेश नीति में विश्वसनीयता केवल भाषणों पर नहीं बल्कि दबाव की स्थिति में दिखाए गए व्यवहार पर आधारित होती है। भारत की ‘पड़ोस पहले’ और ‘हिमालय सुरक्षा’ नीतियों का अहम हिस्सा रहे भूटान की यात्रा को जारी रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने यह दिखाया कि अंतरराष्ट्रीय संपर्क और राष्ट्रीय सुरक्षा प्रबंधन एक-दूसरे के पूरक हैं न कि विरोधी।

भूटान डोकलाम और अन्य क्षेत्रों में चीनी दबाव के खिलाफ एक महत्वपूर्ण बफर राज्य है। पीएम मोदी के इस निर्णय से भूटान आश्वस्त हुआ कि भारत के वादे आंतरिक उथल-पुथल के बावजूद अटल हैं।

निवारण सिद्धांत (Deterrence Theory) के अनुसार, ऐसे कदम किसी राज्य के दृढ़ संकल्प संकेत को मजबूत करते हैं यानी यह विश्वास कि छोटे पैमाने के उकसावे उसके निर्णय-निर्माण को प्रभावित नहीं कर सकते।

इसके उलट, अगर यात्रा रद्द कर दी जाती और यह दिखाया जाता कि छोटे आतंकी हमले भारत की रणनीतिक योजनाओं को बदल सकते हैं तो इससे वही नेटवर्क प्रेरित होते जिन्होंने विस्फोट की साजिश रची थी। इसलिए, पीएम मोदी की स्थिरता ने एक संभावित कमजोरी को दृढ़ता की घोषणा में बदल दिया।

लीडरशप में संकट आने पर सामने आता है मोदी सिद्धांत

क्राइसिस मैनेजमेंट के पाठ में ‘सदमे के लिए मानसिक तैयारी’ के महत्व पर जोर दिया गया है। इसका अर्थ है कि नेताओं को दिनचर्या में आने वाली रुकावट के लिए तैयार रहना चाहिए और सिस्टम को इस तरह सक्षम बनाना चाहिए कि वे संकट के बावजूद काम करता रहे।

पिछले 10 वर्षों में भारत की शासन संस्कृति ने इस सोच को धीरे-धीरे आत्मसात किया है। 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर 2020 के गलवान संघर्ष तक, ध्यान हमेशा इस बात पर रहा है कि बल प्रयोग से पहले शांतिपूर्ण और संयमित प्रतिक्रिया दी जाए। यही पैटर्न भूटान यात्रा में भी दिखा, जिसने यह साबित किया कि तनाव की स्थिति में भारत की स्वाभाविक प्रतिक्रिया घबराहट नहीं बल्कि शांति है।

दिल्ली धमाके का उद्देश्य अनिश्चितता पैदा करना था। एक रणनीतिक नकारात्मक सदमा जो नीति में चिंता, विचलन और हिचकिचाहट ला सके। लेकिन इस नकारात्मक सदमे को प्रधानमंत्री मोदी के यात्रा जारी रखने के फैसले ने एक सकारात्मक सदमे से निष्क्रिय कर दिया। जैसा कि मेजारोस और डैनेट ने कहा है, “सदमे के दो असर हो सकते हैं- या तो यह सोचने और कार्य करने की क्षमता खत्म हो जाए और या फिर यह प्रतिक्रिया देने की क्षमता को बढ़ा देता है।” मोदी की प्रतिक्रिया स्पष्ट रूप से दूसरे असर के अनुरूप थी।

कूटनीतिक निरंतरता बनाए रखते हुए उन्होंने असुरक्षा की तस्वीर को किनारे कर दिया, भारत की अंतरराष्ट्रीय गति को बनाए रखा और यह दोहराया कि शासन आतंक के बीच भी चलता रहना चाहिए। ऐसी स्थिरता इतिहास से भी समर्थित है। चर्चिल के उदाहरण से लेकर मोरक्को के सुधारों तक और आधुनिक निवारण सिद्धांत तक, सबक यही है, “जो राज्य सदमे पर नियंत्रण पा लेते हैं, वे अपनी नियति खुद तय करते हैं।”

भारत-भूटान के संबंध: परंपरा और रणनीतिक साझेदारी

भारत और भूटान के लंबे समय से चले आ रहे विशेष संबंधों की नींव असल में गहराई से अपनाया गया आपसी विश्वास, साझा आध्यात्मिक परंपरा और भौगोलिक निकटता हैं। हाइड्रोपॉवर, व्यापार, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और रक्षा सहयोग इस साझेदारी की प्रमुख विशेषताएँ हैं।

हिमालयी क्षेत्र में स्थित भू-आवेष्ठित (landlocked) राष्ट्र भूटान, चीन और भारत के बीच एक महत्वपूर्ण बफर राज्य की भूमिका निभाता है। अपनी रणनीतिक स्थिति को देखते हुए, भारत भूटान का सबसे विश्वसनीय साझेदार बना हुआ है और सुरक्षा सहयोग तथा विकास पहलों में लगातार समर्थन देता है।

PM @narendramodi arrived at Paro, Bhutan on a State Visit, where he was received by the PM @tsheringtobgay of Bhutan and accorded a warm welcome. He will join the people of Bhutan in marking the 70th birth anniversary of His Majesty the Fourth King.🇮🇳 🇧🇹 pic.twitter.com/8KM27dpb77— Randhir Jaiswal (@MEAIndia) November 11, 2025

रडार के पीछे के उद्देश्य

हालाँकि आधिकारिक बयान दोस्ती, विकास और सांस्कृतिक उत्सव पर केंद्रित था, लेकिन इस यात्रा के पीछे कई कम स्पष्ट लेकिन महत्वपूर्ण लक्ष्य भी थे।

चीनी प्रभाव का मुकाबला: अधूरे सीमा विवादों के बीच चीन भूटान में लगातार कूटनीतिक और बुनियादी ढाँचे से जुड़ी पहल कर रहा है। मोदी की यात्रा ने पूर्वी हिमालय में चीन के बढ़ते प्रभाव को चुनौती दी और भूटान के प्रति भारत की सुरक्षा प्रतिबद्धता को दोहराया।

सीमा सुरक्षा और बुनियादी ढाँचा: संवेदनशील क्षेत्रों के पास सड़क और निगरानी सुधारों के माध्यम से सीमा नियंत्रण को मजबूत करने पर गोपनीय चर्चाएँ इस यात्रा का हिस्सा हैं।

आर्थिक परस्पर निर्भरता: भारत के निवेश का उद्देश्य भूटान की जलविद्युत परियोजनाओं और नई सीमा-पार रेल कनेक्शनों के जरिए आर्थिक निर्भरता बढ़ाना है, ताकि वैकल्पिक व्यापार मार्गों से चीन के प्रभाव के प्रति भूटान की संवेदनशीलता कम हो।

सॉफ्ट पावर का प्रदर्शन: मोदी की प्रार्थनाएँ और राजा का जन्मदिन जैसे भूटान के उत्सवों में भागीदारी भारत के सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करती है और सॉफ्ट पावर के जरिए भूटान की जनता और अभिजात वर्ग की राय भारत के पक्ष में प्रभावित करती है।

खुफिया और संकट तैयारी: संभावित सीमा या आंतरिक सुरक्षा खतरों के खिलाफ बंद दरवाजों के पीछे खुफिया जानकारी साझा करना और समन्वय जारी है। ऐसी यात्राएँ अपडेट और संयुक्त योजना बनाने में मदद करती हैं।

जल और जलवायु सहयोग: जलवायु लचीलापन और साझा जल संसाधन प्रबंधन पर चर्चाएँ खासकर पर्यावरण से जुड़े अहम क्षेत्रों में भारत को भूटान का पसंदीदा साझेदार बनाती हैं।

भू-राजनीतिक प्रभाव

इस अहम समय पर भारत-भूटान के कूटनीतिक संबंधों को दक्षिण एशिया और हिमालयी क्षेत्र की बड़ी रणनीतिक तस्वीर में देखना जरूरी है। भूटान भारत की उस रणनीति का अहम हिस्सा है, जिसका उद्देश्य उत्तर-पूर्वी सीमा की रक्षा करना और चीन की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को रोकना है।

बड़े पैमाने पर बुनियादी ढाँचे की परियोजनाओं का उद्घाटन और सांस्कृतिक कूटनीति सोची-समझी कार्रवाइयाँ थीं, जिन्होंने भूटान की राजनीतिक और आर्थिक स्थिरता के लिए भारत पर निर्भरता को और मजबूत किया। इस यात्रा ने यह संदेश भी दिया कि आतंकवादी हमलों के बावजूद भारत के रणनीतिक हित और विदेशी प्रतिबद्धताएँ प्रभावित नहीं होंगी।

दिल्ली धमाके के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भूटान यात्रा का विचारपूर्ण निर्णय लिया, जो कठिन सुरक्षा परिस्थिति में उनके राजनेता-सुलभ नेतृत्व को दर्शाता है। इस यात्रा ने न केवल महत्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे और ऊर्जा सहयोग को आगे बढ़ाया, बल्कि भारत-भूटान की अटूट दोस्ती को भी मजबूत किया और भारत की दृढ़ता को प्रदर्शित किया।

पीएम मोदी ने यह दिखाया कि संकट के समय भी भारत की स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियाँ मजबूत स्तंभ बनी रहती हैं क्योंकि उन्होंने तात्कालिक संकट प्रतिक्रिया और दीर्घकालिक कूटनीतिक प्राथमिकताओं के बीच संतुलन बनाया है।

इस यात्रा ने भारत-भूटान संबंधों को मजबूत करने के साथ-साथ भारत के बड़े क्षेत्रीय लक्ष्य को भी सामने रखा। अडिग सहयोग और रणनीतिक दृष्टि के साथ स्थिरता को बढ़ावा देना और बाहरी दबावों का सामना करना।

इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी का नेतृत्व रणनीतिक दृष्टि और सहानुभूति का मिश्रण था। उन्होंने विस्फोट में मारे गए परिवारों के प्रति सार्वजनिक रूप से संवेदना व्यक्त की और साथ ही एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक यात्रा को आगे बढ़ाया। यह भारत के संस्थानों पर विश्वास और राष्ट्रीय सुरक्षा व विदेश नीति के प्रति अटूट प्रतिबद्धता का प्रतीक था।

ये लेख मूल रूप से दिव्यांश तिवारी ने लिखा है। अंग्रेजी में इसे पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाएँ।

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