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रील में अर्श पर, रियल में फर्श पर: प्रशांत किशोर की जनसुराज बिहार की जमीन पर क्यों हो गई साफ?

बिहार विधानसभा चुनाव में लड़ाई तो मुख्य रूप से सत्तारूढ़ राजग और विपक्षी दलों के महागठबंधन के बीच थी, लेकिन तमान निगाहें एक और मोर्चे पर भी लगी हुई थीं। यह मोर्चा था चुनावी रणनीतिकार से नेता बनने की कवायद में जुटे प्रशांत किशोर की चुनावी पारी की शुरुआत और उसका परिणाम। उनकी नई नवेली जनसुराज पार्टी अपना खाता खोलना तो दूर इक्का-दुक्का सीटों को छोड़कर अपनी जमानत बचाने तक में नाकाम हुई।

सक्रिय राजनीति का पहला चुनावी ककहरा प्रशांत किशोर के लिए यही सिखाने वाला रहा कि चुनाव लड़वाने और लड़ने में जमीन-आसमान का फर्क है। चौबे जी छब्बे बनने गए और दुबे बनकर लौटे-वाली कहावत प्रशांत किशोर पर एकदम सटीक बैठती हुई दिख रही है।

वह इस कारण कि ऐसी चुनावी शिकस्त से रणनीतिकार के रूप में उनका कद भी घटेगा और संभव है कि भविष्य में उनकी कंपनी ‘आईपैक’ को मिलने वाले कामकाज पर भी इसका कोई असर पड़े।

बहरहाल, नेता के रूप में प्रशांत किशोर की पहली पारी एकदम फीकी रही। चुनाव से पहले बड़े-बड़े दावे करने वाले प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी जन के मन पर कोई छाप छोड़ने में सफल नहीं हो सके। 243 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा के लिए जनसुराज ने 238 उम्मीदवार उतारे। इनमें से लगभग 98% (233 उम्मीदवारों) की जमानत जब्त हो गई।

इस लिहाज से ये चुनाव प्रशांत किशोर के लिए राजनीतिक तौर पर गहरा झटका साबित हुआ है। चुनाव से पहले उन्होंने राज्य भर में व्यापक दौरे किए और पदयात्रा निकालकर लोगों से संपर्क भी साधा।

बड़े बड़े दावे, नहीं आए काम

जनसुराज के गठन से पहले प्रशांत किशोर ने 5 मई 2022 से 2 अक्टूबर 2024 तक 6 हजार किलोमीटर की पैदल यात्रा की। 5000 गाँवों तक पहुँचकर सभाएँ की। बिहार चुनाव से पहले वोटर्स को अपने पाले में लाने के लिए 1,280 दिन तक बिहार के चप्पे-चप्पे पर पहुँचने के जुगत में लगे रहे पर चुनाव के नतीडों में उनके हाथ कुछ न लगा।

उन्होंने चुनाव को एक जन आंदोलन के रूप में पेश करने का प्रयास किया, लेकिन उनकी यह कोशिश रंग नहीं ला पाई। चुनाव परिणाम में उनके लिए एकदम स्पष्ट सीख और संदेश रहा कि आँकड़ेबाजी और रणनीतिक तिकड़मों और जनता की नब्ज समझना एकदम विपरीत मुद्दे हैं।

चुनाव से पहले मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर प्रशांत किशोर और जनसुराज का बड़ा शोर सुनाई पड़ रहा था, लेकिन सुर्खियों, खबरों से लेकर नैरेटिव के मोर्चे पर मची यह हलचल जनमत की दशा-दिशा को किसी भी तरह प्रभावित करने में नाकाम दिखी।

स्पष्ट है कि दूसरों को परीक्षा की तैयारी कराने वाले प्रशांत जब खुद अपने इम्तिहान में बैठे तब या तो उनकी तैयारी पर्याप्त नहीं थी या फिर वह अति-आत्मविश्वास के शिकार थे। दोनों ही परिस्थितियों में परिणाम वही निकलना था जो अंततः सामने भी आया। 1 करोड़ से ज्यादा सदस्यों का दावा करने वाली जनसुराज पार्टी को 10 लाख वोट भी नहीं मिल सके।

प्रशांत को मिली पटखनी के प्रमुख कारण

प्रशांत किशोर की हार के लिए कई हद तक उनकी ही रणनीति जिम्मेदार है। पार्टी का संगठनात्मक ढांचा और जनसंपर्क दोनों ही कमजोर थे। प्रशांत किशोर ने इस चुनाव को एक बड़े जन आंदोलन के रूप में पेश किया था, लेकिन चुनावी नतीजों ने दिखा दिया कि जनता ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। कुछ बिंदुओं में इसे समझा जा सकता है-

जनता के मुद्दों को संबोधित न कर पाना- प्रशांत किशोर बिहार के जमीनी मुद्दों को अनदेखा करते हुए ऐसे मुद्दे उठाते रहे, जिनती अनुगूंज जनता के बीच सुनाई नहीं दी। वे गुजरात जैसे राज्यों के उदाहरण गिनाकर बिहार के पिछड़ेपन का जिम्मेदार बताते रहे। आज के दौर में जब हर व्यक्ति के पास जागरूकता के कई माध्यम उपलब्ध हैं, तब जनता को इस तरह बरगलाना आसान नहीं। इस वास्तविकता को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि चाहे गुजरात हो या फिर तमिलनाडु जैसा औद्योगिक मोर्चे पर अग्रणी कोई अन्य राज्य, वह उस स्थिति में एकाएक नहीं पहुँचा और बिहार को रातोंरात उस मुकाम पर पहुँचा पाना भी संभव नहीं। इसी तरह बिहार से विस्थापन और पलायन का रुझान भी एकाएक शुरू नहीं हुआ। इन स्थितियों को सुधारने के लिए समय की आवश्यकता होगी और संक्रमण की इस अवधि में जरूरी जमीन भी तैयार करनी होगी। ऐसे में प्रशांत के बिहार के साथ पक्षपात और एकाएक बनी स्थितियों के आरोप जनता के गले नहीं उतरे।

व्यावहारिकता के बजाय कल्पनालोक में विचरण- अपने विमर्श में प्रशांत किशोर ने हरसंभव तरीके से यह दिखाने का प्रयास किया कि बिहार की दशा-दिशा सुधारने की उनकी मंशा एकदम भली है, लेकिन अपने इरादों को सिरे चढ़ाने के लिए वह कोई कारगर ब्लूप्रिंट नहीं सुझा सके। इस मामले में उनके दावे भी तेजस्वी यादव जैसे रहे, जिन्होंने हर एक घर से सरकारी नौकरी देने से लेकर महिलाओं को मकर संक्रांति पर 30,000 रुपये देने का वादा किया। तेजस्वी की तरह प्रशांत के वादे भी जनता को न समझ आए और न ही उन पर भरोसा हो पाया।

वैचारिक शून्यता- राजनीति में वैचारिक आग्रह की हमेशा से एक अहम भूमिका होती है, जो प्रमुख नीतिगत मुद्दों पर भी अपना एक स्पष्ट दृष्टिकोण रखता है। इस मामले में प्रशांत किशोर की जनसुराज की स्थिति दिल्ली से आम आदमी पार्टी के रूप में शुरू हुए राजनीतिक प्रयोग के जैसी रही, जिसकी भी वैचारिक मुद्दों पर कोई स्पष्टता नहीं थी। बिहार जैसे राजनीतिक रूप से जागरूक एवं संवेदनशील राज्य में तो वैचारिक दिशा की भूमिका और अहम हो जाती है, जिसे प्रशांत किशोर समय रहते समझ नहीं पाए।

सांगठनिक ढांचे के बजाय पेशेवर प्रणाली पर दांव- किसी भी राजनीतिक दल की ताकत उसके कार्यकर्ता होते हैं। इसलिए कैडर बहुत महत्वपूर्ण होता है। यह कैडर अमूमन वैचारिक दिशा से ही प्रेरित होता है और खुद को राजनीतिक दलों की गतिविधियों में एक अंशभागी के रूप में देखता है। उसका अपने दल के साथ एक भावनात्मक लगाव भी होता है। भावनाओं और वैचारिक खुराक की जुगलबंदी के अभाव में कार्यकर्ता दुविधा एवं भ्रम के शिकार हो जाते हैं। प्रशांत किशोर ने अपना ऐसा सांगठनिक ढांचा विकसित करने के बजाय पेशेवर लोगों को प्राथमिकता दी, जिनके लिए यह किसी सामान्य कवायद जैसा ही रहा। उनकी शिकस्त में यह भी एक कारण रहा कि वह अपने पीछे ऐसे लोगों को लामबंद नहीं कर पाए, जो कड़ी के रूप में और जनता को अपने साथ जोड़ पाते।

गलत टिकट वितरण- टिकट वितरण में भी प्रशांत किशोर का रवैया ऐसा रहा कि वह किसी राजनीतिक लड़ाई के बजाय किसी कारपोरेट ढांचे में काम करने जा रहे हैं। उन्होंने जनता के बीच पैठ के बजाय उम्मीदवारों की निजी उपलब्धियों को ज्यादा तरजीह दी। अमूमन विधान परिषद या राज्यसभा के मामले में ऐसा होता है, लेकिन पंचायत से लेकर विधानसभा और लोकसभा जैसे चुनावों में जनता से नेता का जुड़ाव और उसकी लोकप्रियता कहीं ज्यादा मायने रखती है। इसमें भी प्रशांत मात खा गए और वह ऐसे दमदार उम्मीदवार नहीं तलाश पाए। यही कारण रहा कि जीतना तो दूर वह वोट काटने की स्थिति में भी नहीं आ पाए।

खुद चुनाव न लड़ना- खुद चुनाव से कन्नी काटकर प्रशांत किशोर ने अपने कार्यकर्ताओं को निराश किया। यह भी एक कारण रहा कि उनका चुनाव अभियान कभी परवान ही नहीं चढ़ पाया। अगर वह खुद चुनाव लड़ते तो उनकी पार्टी और कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ता। उन्हें आम आदमी पार्टी के प्रयोग से भी यह सीख लेनी चाहिए थी अपने पहले ही चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने शीला दीक्षित के खिलाफ मोर्चा खोला और उसे जीता भी। इस तरह की चुनौतियां प्रस्तुत करने में जोखिम तो जरूर रहता है, लेकिन बिना जोखिम के प्रतिफल भी हासिल नहीं होता। प्रशांत किशोर का चुनाव लड़ने से किनारा करना उनके रक्षात्मक रवैये को ही जाहिर करने वाला रहा। इस मामले मे स्थिति तब और खराब हो गई, जब पहले उन्होंने तेजस्वी यादव के खिलाफ चुनाव में उतरने के संकेत दिए थे।

बड़े बड़े दावे करना- एक के बाद एक इंटरव्यू और रैलियों में प्रशांत किशोर बड़े-बड़े दावे करते दिखे। कई बार अनावश्यक आक्रामकता भी उन पर हावी दिखी। वह जदयू, भाजपा और राजद जैसे दलों के साथ ही तेजस्वी, नीतीश और मोदी जैसे नेताओं पर निजी हमले भी करते रहे। उनका यह प्रचार पूरी तरह नकारात्मक रहा, जो कई बार उलटा ही पड़ता है।

नामी प्रत्याशी फिर भी जब्त हो गई जमानत

प्रशांत किशोर की पार्टी से खड़े हुए लगभग सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हुई। हैरानी वाली बात ये रही कि इनमें से ज्यादातर काफी नामी और प्रतिष्ठित बैकग्राउंड से हैं। फिर भी जनता को इनके नामों को नकार दिया।

लता सिंह- अस्थावां सीट से खड़ी हुई। पूर्व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह की बेटी होने के बावजूद लता सिंह को जनता ने पूरी तरह नकार दिया और जमानत जब्त हो गई। एक तरह से जनता ने वंशवाद को नकार कर परिवारवाद की राजनीति को पूरी तरह खारिज कर दिया।

कुमारी पुनम सिन्हा- महिला प्रत्याशी होने के बावजूद पुनम सिन्हा को कोई खास समर्थन नहीं मिला। वह लालू यादव के गढ़ राघोपुर से उतरीं, लेकिन पूरी तरह हार गईं। इस जगह पर जनसुराज ने जातीय समीकरण साधने की कोशिश की, लेकिन जनता ने इसे भाव नहीं दिया।

तनुजा कुमारी- पूर्व जिला परिषद सदस्य होने और स्थानीय स्तर पर पहचान रखने वाली तनुजा ने कारगाह से चुनाव लड़ा और जमानत जब्त करा बैठीं। यहाँ जनसुराज ने स्थानीय चेहरों को टिकट तो दिया, लेकिन संगठनात्मक समर्थन नहीं दिखा पाए।

बिहार शरीफ सीट- नगर निगम के पूर्व महापौर को टिकट दिया गया, व्यापक प्रचार भी किया लेकिन जनता ने उन्हें भी नकार दिया। एक तरह से प्रशांत के पुराने चेहरों को नए रंग में पेश करने की कोशिश विफल रही।

रितेश पांडे- चर्चित नाम वाले रितेश सीवान से खड़े हुए पर चुनाव में तीसरे स्थान पर पहुँचे। जनसुराज ने प्रचार में सोशल मीडिया और इन्फ्लुएंसरों पर ज्यादा भरोसा किया फिर भी रितेश की जमानत जब्त हो गई। यह साफ तौर पर बताता है कि प्रशांत सोशल मीडिया की चमक में जमीनी वोट साध नहीं पाए।

के.सी. सिन्हा- एक अनुभवी चेहरा होने के चलते सिन्हा पटना साहिब से चुनाव लड़े पर हार गए। उनकी हार ने जनसुराज पार्टी के अंदर चल रही वैचारिक अस्पष्टता को जग जाहिर कर दिया।

सरफराज आलम- पूर्व सांसद सरफराज आलम कोचाधामन सीट से उतरे, लेकिन तीसरे स्थान पर रहे और जमानत जब्त हो गई। यहाँ जनसुराज ने मुस्लिम वोट बैंक को साधने की कोशिश की, लेकिन जनता ने इसे असली मुद्दों से भटकाव माना।

प्रशांत किशोर ने खुद चुनाव नहीं लड़ा, कार्यकर्ताओं की जगह पेड कैडर रखे, और सोशल मीडिया पर ज्यादा भरोसा किया। नतीजा यह हुआ कि पार्टी प्रशांत के बयान के अनुसार सीधे ‘फर्श’ पर ही आ गई।

अपने ही बयान में फँसे प्रशांत किशोर

प्रशांत किशोर ने बिहार विधानसभा चुनाव से पहले कई बार कहा था कि उनकी जनसुराज पार्टी ‘अर्श पर रहेगी या फर्श पर रहेगी‘ यानी या तो बहुत ऊँचाई पर जाएगी या पूरी तरह नीचे गिर जाएगी। चुनाव परिणामों में यह बयान कड़वी हकीकत बन गया, क्योंकि पार्टी एक भी सीट नहीं जीत सकी।

इनके अलावा सोशल मीडिया पर प्रशांत किशोर का एक वीडियो भी तेजी से वायरल हुआ जिसमें वे अपना माथे से तिलक को मिटाते दिखे। यह वीडियो बिहार की जनता के बीच काफी विवादित रहा और इसने प्रशांत किशोर के प्रति नकारात्मक भावनाओं को और बढ़ाया। इस घटना के बाद से भी उनकी छवि जनता के बीच नकरात्मक बनी है।

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