
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (23 मई 2025) को अपने विशेष अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए एक ऐसे व्यक्ति की सजा खत्म कर दी, जिसे नाबालिग लड़की के साथ यौन संबंध बनाने के लिए दोषी ठहराया गया था। वो मौजूदा समय में अपनी उसी पत्नी और बच्चे के साथ बंगाल में रह रहा है, जिस लड़की से तब नाबालिग रहते उसने संबंध बनाए थे। हालाँकि दोनों ने शादी कर ली थी। अब इस मामले में कोर्ट ने अपने विशेष अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए उसकी सजा को माफ कर दी है। कोर्ट ने लड़की के संघर्ष को भी देखा, जो उसे बरी कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ती रही।
रिपोर्ट्स के मुताबिक, यह मामला 2018 का है, जब पश्चिम बंगाल में एक 14 साल की लड़की के लापता होने की शिकायत उसके परिवार ने दर्ज की थी। बाद में पता चला कि लड़की ने 25 साल के एक युवक से शादी कर ली थी। लड़की के परिवार ने इस मामले में शिकायत दर्ज की और स्थानीय अदालत ने युवक को पॉक्सो एक्ट के तहत 20 साल की सजा सुनाई थी।
साल 2023 में कलकत्ता हाई कोर्ट ने इस व्यक्ति को बरी कर दिया था, लेकिन इसके साथ ही कोर्ट ने किशोरियों की यौन इच्छाओं और नैतिक जिम्मेदारियों पर विवादास्पद टिप्पणियाँ की थी। हाई कोर्ट ने कहा था कि किशोर लड़कियों को अपनी ‘यौन इच्छाओं पर नियंत्रण‘ रखना चाहिए और समाज उन्हें ऐसे मामलों में ‘हारा हुआ’ मानता है। इन टिप्पणियों की व्यापक आलोचना हुई और सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दखल दिया। बीते साल यानी अगस्त 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को पलटते हुए व्यक्ति की सजा को बहाल रखा था, लेकिन सजा पर अमल को रोक दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पेशल कमेटी का गठन किया, फिर सुनाया फैसला
इसके बाद कोर्ट ने पश्चिम बंगाल सरकार को एक विशेषज्ञ समिति गठन करने का आदेश दिया, जिसमें मनोवैज्ञानिक और बाल कल्याण अधिकारी शामिल थे। इस समिति को पीड़िता की वर्तमान भावनात्मक स्थिति और सामाजिक कल्याण का आकलन करने की जिम्मेदारी दी गई। समिति की रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि पीड़िता, जो अब उस व्यक्ति की पत्नी है, वो उससे भावनात्मक रूप से जुड़ी हुई है और अपने परिवार के प्रति बहुत संवेदनशील है। दोनों अब पश्चिम बंगाल में अपने बच्चे के साथ एक साथ रहते हैं।
पीड़ित लड़की के संघर्षों का भी रखा ध्यान
सुप्रीम कोर्ट ने इस रिपोर्ट के आधार पर कहा कि पीड़िता इस घटना को जघन्य अपराध नहीं मानती। कोर्ट ने कहा, “पीड़िता ने इसे जघन्य अपराध नहीं माना। समाज ने उसका मजाक उड़ाया, कानूनी व्यवस्था ने उसे निराश किया, और परिवार ने उसे छोड़ दिया। उसे पुलिस, कानूनी प्रक्रिया और आरोपित को सजा से बचाने की लगातार लड़ाई पड़ी।”
जस्टिस अभय ओका और जस्टिस उज्जल भुइयाँ की बेंच ने कहा कि यह मामला ‘सभी के लिए आँखें खोलने वाला’ है और यह कानूनी व्यवस्था में खामियों को दर्शाता है। कोर्ट ने कहा कि पीड़िता को पहले सूचित निर्णय लेने का मौका नहीं मिला और व्यवस्था ने उसे कई स्तरों पर निराश किया। सुप्रीम कोर्ट ने आर्टिकल 142 का उपयोग करते हुए ‘पूर्ण न्याय’ के लिए फैसला लिया कि व्यक्ति को सजा देना न्याय के हित में नहीं होगा, क्योंकि इससे परिवार टूट सकता है।