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इतना टैक्स कि पैड खरीद ही नहीं पा रहीं खातून, पाकिस्तान में 40% ‘Period Tax’ के खिलाफ मामला पहुँचा सुप्रीम कोर्ट: जानें Menstrual Hygiene में कितना पीछे है इस्लामी मुल्क?

पाकिस्तान में महिलाओं को हर महीने एक स्वाभाविक प्रक्रिया माहवारी (पीरियड) का सामना करना पड़ता है। लेकिन इस स्वाभाविक प्रक्रिया को देखने का समाज-व्यवस्था और सरकार का रवैया अक्सर आसान नहीं रहा। हाल में 25 वर्षीय वकील और कार्यकर्ता महनूर ओमर ने सरकार के सामने ‘पीरियड टैक्स’ नामक एक बड़ी चुनौती उठाई है। वकील महनूर ने कोर्ट में याचिका दायर की है कि सैनिटरी पैड्स पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर (टैक्स और कस्टम ड्यूटी) लगभग 40 प्रतिशत तक पहुँच जाते हैं, जिससे गरीब और ग्रामीण महिलाएँ इन तक पहुँच नहीं पातीं।

सरकार ने इस बात पर अभी तक प्रभावी कदम नहीं उठाए हैं कि मासिक धर्म गृहस्थी का हिस्सा है, न कि कोई ‘लक्जरी’ चीज। पैड पर टैक्स लगने का अर्थ है- ‘महिलाओं को अपनी बॉडी बायोलॉजी पर अर्थव्यवस्था का बोझ देना’ और यह सामाजिक और आर्थिक असमानता को बढ़ावा देता है।

पीरियड्स टैक्स और इसे लग्जरी मानने का विवाद

पाकिस्तान में माहवारी प्रबंधन का सबसे बड़ा रोड़ा उच्च कर यानि हाई टैक्स हैं। जबकि दुनिया के कई देश, जैसे केन्या, भारत, UK, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, कोलंबिया और दक्षिण अफ्रीका, इस ‘पिंक टैक्स’ को समाप्त कर चुके हैं, पाकिस्तान सरकार सैनिटरी पैड्स को ‘आवश्यक वस्तु’ नहीं मानती है।

इसके विपरीत, सरकार गाय के वीर्य (cattle semen), दूध और पनीर जैसी चीजों को टैक्स-मुक्त रखती है, जबकि पैड्स को इत्र और कॉस्मेटिक्स जैसे ‘लग्जरी सामान’ की श्रेणी में रखकर उन पर भारी टैक्स लगाती है।

सरकार का यह फैसला कि सैनिटरी पैड जरूरी चीज नहीं, बल्कि लग्जरी (ऐश-आराम की चीज) है, पूरी तरह बेतुका है। यह असल में महिलाओं के साथ एक तरह का छिपा हुआ भेदभाव है। एक्टिविस्ट महनूर ओमर ने इसी बात पर सरकार को कोर्ट में घसीटा है। उनका कहना है कि जो चीज हर महीने महिलाओं के लिए जिंदगी की जरूरत है, उस पर टैक्स लगाना उनकी इज्जत (गरिमा) छीनने जैसा है।

सोचिए, एक महिला अपने जीवन के 6 से 7 साल तक पीरियड्स में रहती है। ऐसे में, इन जरूरी चीजों पर टैक्स लगाना दिखाता है कि नीतियाँ बनाते समय सरकार महिलाओं की जरूरतों को नजरअंदाज कर रही है। इसे ही ‘लिंग-अंध नीति‘ कहते हैं यानी ऐसी नीतियाँ जो सिर्फ पुरुषों या आम जनता को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं। इसीलिए महनूर ओमर और ‘माहवारी जस्टिस’ जैसे ग्रुप इस गलत टैक्स को खत्म करवाने के लिए लड़ रहे हैं।

आँकड़े बताते हैं दर्द भरी कहानी: सेहत और पढ़ाई पर कैसा असर

ये सारे सरकारी नियम (टैक्स) कितने खराब हैं, ये जानने के लिए हमें इन बड़े आँकड़ों को देखना होगा। टैक्स लगने की वजह से सैनिटरी पैड इतने महँगे हो जाते हैं कि लाखों गरीब महिलाएँ उन्हें खरीद ही नहीं पातीं। यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि पैड पर इतना ज्यादा टैक्स लगता है कि उनकी कीमत बाजार में 40% तक बढ़ जाती है। इस महँगाई का सीधा हमला महिलाओं की सेहत पर होता है।

पैड महँगे होने के कारण, खासकर गाँवों में, बहुत कम महिलाएँ पैड इस्तेमाल कर पाती हैं, सिर्फ 16.2% महिलाएँ। जब पैड नहीं मिलते, तो मजबूरन लड़कियाँ और महिलाएँ पुराने कपड़े या दूसरे गंदे/खराब सामान इस्तेमाल करती हैं। इससे उन्हें भयानक संक्रमण (Infection) होने और लंबे समय तक प्रजनन अंगों (Reproductive Health) में बड़ी समस्या होने का खतरा दोगुना हो जाता है। 2022 की बाढ़ जैसी मुश्किल घड़ी में, जब सब कुछ बह गया था, तब तो महिलाओं को और भी गंदी चीजें इस्तेमाल करनी पड़ी थीं।

यह समस्या लड़कियों की पढ़ाई भी बर्बाद कर रही है। जब पीरियड्स शुरू होते हैं, तो हर पाँच में से एक लड़की स्कूल नहीं जाती या स्कूल छोड़ देती है, क्योंकि उनके पास पैड नहीं होते और उन्हें शर्म आती है। 79% महिलाएँ कहती हैं कि वे पीरियड्स के दौरान सामाजिक गतिविधियों या काम में भाग नहीं ले पातीं। इसका मतलब है कि वे अपनी पढ़ाई का पूरा एक साल तक खो देती हैं। दुख की बात यह भी है कि लगभग 41% लड़कियों को तो पहली बार पीरियड्स आने से पहले पता ही नहीं होता कि यह क्या है, क्योंकि कोई उनसे बात ही नहीं करता। यह दिखाता है कि हमें न सिर्फ पैड सस्ते करने हैं, बल्कि सही जानकारी भी देनी है।

शर्म की दीवार और सरकार की अनदेखी

टैक्स की मुश्किल अपनी जगह है, लेकिन पाकिस्तान में एक और बहुत बड़ी रुकावट है, वह है पीरियड्स के बारे में फैली हुई चुप्पी और शर्म (Taboo)। माहवारी को आज भी समाज में ‘गंदा’ और ‘छुपकर बात करने वाला’ विषय माना जाता है। इस वजह से कोई भी इस पर खुलेआम बात नहीं करना चाहता। जब लोग बात नहीं करते, तो सरकार भी इस पर ध्यान नहीं देती।

इसी अनदेखी का नतीजा है ‘नीतिगत शून्यता‘। इसका सीधा मतलब है कि पाकिस्तान की सरकार के पास माहवारी स्वास्थ्य प्रबंधन (MHH) को सुधारने के लिए कोई राष्ट्रीय योजना, कोई बड़ा कानून या कोई साफ रणनीति ही नहीं है। जब कोई सरकारी प्लान नहीं होता, तो समस्या वैसी की वैसी बनी रहती है और लाखों महिलाएँ अपनी सेहत से जुड़ी इस सबसे जरूरी चीज के लिए जूझती रहती हैं।

लेकिन अच्छी बात यह है कि बदलाव की कोशिशें शुरू हो चुकी हैं। ‘माहवारी जस्टिस’ जैसे नौजवानों के संगठन इस चुप्पी को तोड़ रहे हैं। ये लोग गरीब और पिछड़ी जगहों पर माहवारी के बारे में सही जानकारी दे रहे हैं और जरूरी सामान (पैड्स) भी बाँट रहे हैं। इसके अलावा, सिंध प्रांत में एक अच्छा काम हुआ है। उन्होंने स्कूलों के रिकॉर्ड सिस्टम में ‘माहवारी सुविधाओं’ को शामिल करना शुरू कर दिया है ताकि पता चल सके कि स्कूलों में लड़कियों के लिए कितनी सुविधाएँ हैं।

वहीं, UNICEF जैसी संस्थाएँ सरकार से कह रही हैं कि टैक्स कम करो ताकि पैड सस्ते और आसानी से मिल सकें। ये सारे प्रयास और महनूर ओमर की कानूनी लड़ाई इस बात पर जोर देती है कि पीरियड्स का सही इंतजाम करना सिर्फ सफाई की बात नहीं है, बल्कि यह हर महिला का बुनियादी स्वास्थ्य अधिकार (Basic Health Right) है।

यह मामला सिर्फ पैसे का नहीं, बल्कि हक और सम्मान का है

पीरियड्स पर टैक्स क्यों नहीं लगना चाहिए?- पहला और सबसे जरूरी विचार यह है कि माहवारी यानी पीरियड्स एक कुदरती काम है। यह कोई शौक या लग्जरी (ऐश-आराम) की चीज नहीं है जिसके लिए औरतों को ज़्यादा टैक्स भरना पड़े। सैनिटरी पैड महिलाओं की बुनियादी जरूरत है, जैसे रोटी, कपड़ा और मकान। यह चीज उनकी सेहत, सफाई और इज्जत (गरिमा) से जुड़ी है। जब सरकार इस पर टैक्स लगाती है, तो वह इसे एक जरूरी चीज मानने से मना कर देती है। यह साफ तौर पर दिखाता है कि यहाँ भेदभाव हो रहा है।

टैक्स का बोझ, औरतों की जिंदगी पर असर- दूसरा बड़ा विचार यह है कि यह भारी टैक्स असमानता को बढ़ाता है। अगर पैड की कीमत में 40% हिस्सा टैक्स का है, तो सोचिए कि गरीब घरों की और गाँव की लड़कियाँ इसे कैसे खरीदेंगी? जब वे पैड नहीं खरीद पातीं, तो उन्हें गंदे और असुरक्षित तरीके अपनाने पड़ते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि उनकी सेहत खराब होती है, उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ता है और उनका आत्म-विश्वास कम हो जाता है। यानी, टैक्स सीधे तौर पर लैंगिक असमानता (Gender Inequality) को बढ़ावा दे रहा है।

सरकार की नीतियाँ क्यों ‘अंधी’ हैं?- तीसरा विचार यह है कि हमारी नीतियाँ बनाने वाले लोग, अक्सर पुरुषों की नजर से सोचते हैं। जब वे कोई टैक्स नियम बनाते हैं, तो वे बस यह देखते हैं कि सरकार की कितनी कमाई होगी, वे यह नहीं देखते कि उस टैक्स का बोझ किस पर पड़ेगा। इसीलिए महनूर ओमर ने कहा, “जब महिलाएँ मंत्री और बड़ी नेता हैं, तब भी ऐसी नीतियाँ बिना किसी सवाल के पास हो जाती हैं।” यह दिखाता है कि सरकार की सोच अभी भी ‘लिंग-अंधी’ (Gender Blind) है, जो महिलाओं की खास जरूरतों को नजरअंदाज कर देती है।

सिर्फ टैक्स हटाना काफी नहीं- चौथा अहम विचार यह है कि सिर्फ टैक्स हटा देने से समस्या खत्म नहीं होगी। हमें समाज को भी बदलना होगा। माहवारी पर खुलकर बात करनी होगी, स्कूलों-कॉलेजों में लड़कियों को सही जानकारी देनी होगी और सबसे जरूरी, हर स्कूल और पब्लिक जगह पर साफ-सुथरे, अलग शौचालय, पानी और पैड की सुविधा देनी होगी। कई रिपोर्ट्स बताती हैं कि पाकिस्तान के बहुत से स्कूलों में लड़कियों के लिए अभी भी ये बुनियादी सुविधाएँ नहीं हैं।

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