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क्या ‘सोम यज्ञ’ करने से सच में होती है वर्षा… वैज्ञानिकों ने ‘सनातन परंपरा’ पर शुरू किया शोध, उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर में अनुष्ठान से हुई शुरुआत

सनातन में यज्ञ और हवन का महत्व वैदिक काल से ही चला आ रहा है। भगवान श्री राम के जन्म से लेकर पूर्वजों की श्रद्दांजलि देने के लिए आज भी यज्ञ का ही सहारा लिया जाता है। सनातन की इसी परंपरा में सूखे जैसी आपदा के समाधान के लिए ‘सोम यज्ञ’ करवाया जाता था।

मान्यताएँ कहती हैं कि इससे बारिश हो भी जाती थी। अब इसी वैदिक मान्यता की पुष्टि और यज्ञ की वैज्ञानिकता को परखने के लिए मध्य प्रदेश में शोध किया जा रहा है।

मध्य प्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद (MPCST)भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान इंदौर (IIT Indore) और भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक इस शोध में प्रतिभाग कर रहे हैं।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, 24 अप्रैल 2025 को लगभग 15 वैज्ञानिकों की टीम ने मध्य प्रदेश के उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर में इस प्रयोग को किया। उन्होंने वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार सोम यज्ञ किया। इसके बाद उन्होंने 24 अप्रैल से 29 अप्रैल तक मौसम में बदलाव, एयरोसोल बिहेवियर और तापमान में परिवर्तन समेत कुछ अन्य पहलुओं की जाँच की।

यज्ञ का पौराणिक महत्व

वैज्ञानिकों के अनुसार, पौराणिक समय में सोम यज्ञ के लिए समोवल्ली (सरकोस्टेमा ब्रेविस्टिम्मा) नामक एक पौधे के रस का उपोग किया जाता था। मान्यता है कि देशी गाय के दूध से बने घी के साथ मिलाकर जब इस पौधे के रस को अग्नि में डाला जाता है तो न सिर्फ वातावरण शुद्ध होता है बल्कि बादलों का संघनन भी बढ़ जाता है।

नमी बढ़ने के बाद यज्ञ के आस पास की जगहों पर बारिश होती है। अध्यात्मिक तौर पर यज्ञ और हवन का महत्व विज्ञान से कहीं न कहीं जुड़ा हुआ भी है। हवन में डाले जाने वाले गुड़ और घी से ऑक्सीजन बनता है। इससे निकलने वाले धुएँ से 94% हानिकारण जीवाणु और विषाणु खत्म हो जाते हैं।

जिस जगह पर यज्ञ किया जाता है उस जगह को पवित्र माना जाता है। इसके पीछे का कारण ये है कि यज्ञ के धुएँ से उस जगह पर जीवाणुओं का स्तर लगभग एक माह तक नहीं बढ़ पाता। इससे न केवल घर में शुद्धता रहती है पर साथ ही फसलों में भी कीड़े नहीं लग पाते।

आस्था और विज्ञान का मिश्रण

वैज्ञानिकों का कहना है कि यह करने के पीछे उनका उनका उद्देश्य इस परंपरा की सत्यता को प्रमाणित करना था। इस शोध को पीरा करने में अक्षय कृषि परिवार नाम के एक गैर सरकारी संगठन (NGO) ने अपनी भूमिका निभाई थी।

रिपोर्ट्स के अनुसार, भारतीय मौसम विभाग के सेवानिवृत्त वैज्ञानिक राजेश माली ने बताया कि ये शोध 24 अप्रैल 2025 को शुरू हुआ था और आगे कई वर्षों तक चलेगा। इसके परिणाम से न केवल पौराणिक मान्यताओं पर लोगों का विश्वास बढ़ सकेगा पर साथ ही हमारे ऋषि मुनियों के ज्ञान की ख्याति भी बढ़ेगी।

राजेश ने बताया,”शोध में हम लगभग 13 उपकरणों का उपयोग करके अलग-अलग चीजों को माप रहे हैं। इन उपकरणों में से एक ‘क्लाउड कंडेनसेशन न्यूक्लियर काउंटर’ (CCN काउंटर) यज्ञ वाली जगह और उसके आसपास के पर्यावरण में बादल में मौजूद एयरोसोल कणों की सांद्रता पर काम करता है।

वहीं दूसरा मुख्य उपकरण ‘टेथरसॉन्ड’ एक सेंसरयुक्त गु्ब्बारा होता है। ये वायुमंडल में नमी, तापमान, दबाव आदि को जाँचता है। एक अन्य उपकरण स्कैनिंग मोबिलिटी पार्टिकल साइजर (SMPS) से आस पास की एयरोसोल की घटनाओं की गणना के लिए उपयोग किया जाता है।

कई बार रिकॉर्ड हो रहा डेटा

आईआईटीएम के क्षेत्रीय कार्यालय के एक अन्य वैज्ञानिक डॉ. यांग लियान के अनुसार, वैज्ञानिकों की टीम इस शोध में आगे के तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए लगातार डेटा रिकॉर्ड कर रही है।

उन्होंने कहा, “उपकरणों से सभी डेटा लेने के बाद हम यज्ञ के प्रभाव से पर्यावरण पर हुए असर का विश्लेषण करेंगे। इसके लिए हम दिन में चार बार डेटा रिकॉर्ड कर रहे हैं। सुबह और शाम के अलावा यज्ञ के दौरान भी दो बार डेटा रिकॉर्ड किया जा रहा है।”

MPCST के निदेशक और शोध टीम के एक सदस्य अनिल कोठारी ने कहा, “यह अध्ययन विज्ञान और भारत के ऋषि मुनियों के द्वारा दी गई जानकारियों के बीच एक पुल की तरह काम करेगा। शोध के पूरा होने के बाद पर्यावरण और विज्ञान के क्षेत्र में नई जानकारी सामने आ सकती है।”

अक्षय कृषि परिवार के संयोजक गजानंद डांगे का कहना है कि अगर इस शोध के परिणाम उत्साहजनक नहीं मिलते हैं तो वैज्ञानिकता को परखने के लिए नई मशीनें भी लाईं जा सकती हैं। उन्होंने कहा, “इस शोध का उद्देश्य सदियों पुरानी पारंपरिक मान्यताओं को वैज्ञानिक प्रमाण देना है।”

वैज्ञानिकों का मानना है कि इस शोध के परिणाम के आधार पर आगे चलकर ग्लोबल वार्मिंग समेत कई अन्य पर्यावरणीय समस्याओं में इन पारंपरिक तरीकों का उपयोग करने पर विचार किया जा सकता है।

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