
द वायर के पत्रकार उमर राशिद पर लगे गंभीर आरोपों ने एक डरावना पैटर्न उजागर किया है। खासकर लेफ्ट-लिबरल विचारधारा से जुड़ी महिलाओं के मामले में, जिसमें उन्होंने अपने साथ हुए अत्याचारों पर चुप्पी साधे रखी। ये चुप्पी इसलिए नहीं कि वो अत्याचारी से डरती हैं, बल्कि इसलिए, क्योंकि इससे ‘इस्लामोफोबिया’ को हवा मिल जाती और ‘माहौल’ खराब हो जाता। इसके नतीजे में क्या? ऐसे मामले धीरे-धीरे दब जाते हैं और अत्याचारी आजाद घूमते हैं और फिर नया शिकार करते हैं।
ऐसे मामलों में अपराधी पीड़ित पर ऐसी नैतिक जिम्मेदारी का बोझ डाल चुके होते हैं, जिसमें पीड़ित को ही ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ को आगे बढ़ाने वाले ‘फाइटर’ का ‘मानसिक बोझा’ ढोने वाला ‘फील’ आता हो और वो सबकुछ सह कर भी खामोश रहती हैं। क्योंकि ऐसी लेफ्ट लिबरलों पर ऐसे ‘नरेटिव’ को ‘हवा’ न देने की जिम्मेदारी थमा चुके होते हैं, जिसमें ‘माहौल खराब’ होने का ‘डर’ छिपा रहता है। इस ‘माहौल’ को बचाने के लिए वो सबकुछ सहती जाती हैं।
बहरहाल, ऐसे ही एक अन्य मामले में रुचिका शर्मा नाम की महिला की भी ‘कहानी’ सामने आई है। रुचिका यूट्यूब पर इतिहास की बातें और मेकअप ट्यूटोरियल के लिए जानी जाती हैं। उन्होंने विचारधारा के बोझ तले ऐसी आपबीती साझा की, जो ‘हास्यास्पद’ ही होती, अगर इतनी गंभीर और दुखद न होती।
रुचिका शर्मा ने X पर लिखा, “यह देखकर दुख होता है, लेकिन यह इसका अंदाजा था कि एक महिला के भयानक अनुभव को इस्लामोफोबिया भड़काने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।” फिर बिना किसी आत्म-जागरूकता के रुचिका ने खुलासा किया कि उन्होंने भी अपने साथ हुए अत्याचार को उजागर नहीं किया। क्यों? क्योंकि उनके शब्दों में “संघी लोग इसका इस्तेमाल अपने घटिया सांप्रदायिक एजेंडे को बढ़ाने के लिए करेंगे।”
Reading the allegations levelled against Omar Rashid was deeply triggering and very relatable as someone who has now (for the past 3.5 years) been successfully clean of a 10 year long mentally and physically abusive relationship. The part where she says he would beat her up and… pic.twitter.com/8QFaigTqx0— Dr. Ruchika Sharma (@tishasaroyan) May 22, 2025
रुचिका शर्मा ने ये स्वीकार किया कि उनके साथ गलत हुआ। उनके साथ दुर्व्यवहार हुआ और उन्होंने मुस्लिम अत्याचारी के मामले में चुप रहना चुना, क्योंकि इससे माहौल ‘खराब’ होता। ये तो उनकी खामोशी से भी कहीं ज्यादा बुरी बात हुई।
अब जब इस बात का उन्होंने खुलासा कर दिया, तो इंटरनेट पर हंगामा मच गया।
हर तरफ से आलोचकों ने इस नैतिक उलटबांसी की निंदा की: रुचिका और पीड़िता दोनों को अपने साथ हुए अत्याचार से ज्यादा इस बात का डर था कि इसका इस्तेमाल दक्षिणपंथी लोग कर सकते हैं। एक हैरान करने वाले अपराध को उसकी गंभीरता के हिसाब से नहीं, बल्कि किसी को राजनीतिक फायदा हो सकता है, इसलिए दबाए रखा गया। दोनों ही मामलों में ये एक जैसा ही निकला।
ये फर्जी नैतिकतावादी संतुलन दोनों ही मामलों में दिखा, रुचिका शर्मा के भी और उमर राशिद ने जिस लड़की के साथ बर्बरता की, उसके मामले में भी।
बता दें कि एक हिंदू महिला (जो सार्वजनिक तौर पर सामने नहीं आई) ने लिबरल सर्किल के चर्चित ‘पत्रकार’ उमर राशिद पर बार-बार रेप करने, शारीरिक शोषण करने, उसकी मर्जी के खिलाफ गोमाँस खिलाने का आरोप लगाया था। वो अब तक चुप क्यों रही? क्योंकि उसे लगता था कि अगर वो कुछ बोलेगी, तो कथित रूप से ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ को चोट पहुँचती। मामला का सांप्रदायिक एंगल एक दम से माहौल खराब कर देता।
उसने अपनी शिकायत में लिखा, “वो बार-बार मेरी ‘हिंदू राष्ट्र’ में ‘मेरी औकात’ और पहचान याद दिलाता था।” और इस तरह से “इस रिश्ते की हकीकत को छिपाए रखना पड़ा, ताकि मुस्लिम पुरुषों पर आँच न आए।” उसने डर की वजह से चुप्पी नहीं साधी, बल्कि ‘सांप्रदायिक एकता’ न खराब हो जाए, इसलिए वो अत्याचार सहती रही।
शिकायत का स्क्रीनशॉट
इसके साथ ही उसने अपने पोस्ट में ये भी साफ किया कि उसका ये पोस्ट किसी ‘धर्म’ के खिलाफ नहीं, बल्कि पुरुषवादी व्यवस्था यानी पैट्रियार्की के खिलाफ था। उसने लिखा कि “उसके मजहब ने ये अपराध नहीं कराया, बल्कि उसके ‘स्वभाव’ ने ऐसा कराया।” यही नहीं, उसने लिखा, “वो किसी भी धर्म का हो सकता था। क्या हुआ, इसका खाने या मजहब से कोई लेना देना नहीं, ये सिर्फ कंट्रोलिंग नेचर की वजह से था।”
वैसे, ये सब बताने के बाद भी उनके पोस्ट में जो साफ था कि वो (उमर) बार-बार उक्त महिला की ‘औकात’ बताता रहता था, साथ ही ये भी बताता था कि वो ‘कश्मीरी मुस्लिम’ है। वो ऊपर है। लेकिन अगर ये बात सामने आई, तो हो सकता है कि उसकी ‘कौम’ से लोग नफरत करने लगें। ऐसे में ‘चुप’ रहना ही सही रास्ता है।
उसकी ये सफाई शायद लेफ्ट-लिबरलों को संतुष्ट कर गई हो, लेकिन लोगों का गुस्सा भड़क उठा। लोगों ने कहा भी कि उसने ‘धर्म’ की वजह से चुप्पी साधे रखी, जिसकी वजह से उसका शोषण बढ़ता गया। यानी उमर को ऐसा सब करने की छूट मिलती गई, क्योंकि उसके ‘कामों’ के बारे में किसी को पता नहीं चलता था। बहरहाल, इस मामले ने बता दिया कि ‘विचारधारा’ की वजह से कैसे ‘न्याय’ की हत्या कर दी गई, यानी न्याय को ‘मौका’ ही नहीं मिला और अत्याचार लंबे समय तक जारी रहे।
ये बात सिर्फ रुचिका शर्मा और उमर राशिद की सताई ‘पीड़िता’ तक ही शामिल नहीं है, जिसमें ‘कथित नैतिकता’ और ‘सांप्रदायिक एजेंडे’ को हवा न मिले कि नैतिक जिम्मेदारी की वजह से अपराधियों के अपराधों को छिपाना पड़ा हो। एक महिला ने स्वीकार किया कि वो भी ऐसे ही मामले से गुजर चुकी है, जिसमें उसने अपने साथ छेड़छाड़ करने वाले एक अपराधी को सिर्फ इसलिए छोड़ दिया, क्योंकि वो मुस्लिम था। महिला को लगा कि अगर वो ‘मुस्लिम शोहदे’ की शिकायत करेगी, तो उसके राज्य में ‘गंगा जमुनी तहजीब’ कमजोर पड़ सकती है और राज्य में ‘अल्पसंख्यकों’ के खिलाफ माहौल बिगड़ जाएगा।
वैसे, उमर राशिद के मामले में ‘द वायर’ ने बेहद ‘हल्का’ सा कदम उठाया और ‘इंटरनल इन्क्वॉयरी’ की बात कही। हालाँकि ऑनलाइन दुनिया के लोग ये बात जोर देकर कह रहे हैं कि ‘द वायर’ ने उमर राशिद पर कार्रवाई की जगह, इस मामले को दबाने के लिए ‘डैमेज कंट्रोल’ के तहत इन्क्वॉयरी की बात कही है।
ये पूरा मामला न सिर्फ उमर राशिद के घटिया कुकर्मों को सामने लाया, बल्कि उस कथित ‘लिबरल नारीवाद’ को भी सामने लाने में सफल रहा, जो माहौल के हिसाब से ‘मुँह’ खोलता है। एक ऐसा नारीवाज, जो अपराध को अपराध के स्तर पर नहीं तौलता, बल्कि मजहबी पहचान की वजह से ‘सांप्रदायिक एजेंडा’ और ‘राजनीतिक नफा-नुकसान’ भी देखता है। वैसे, इसे नारीवाद कब से कहा जाने लगा है, ये तो वही जानें। क्योंकि मेरी नजर में तो ये नारीवाद नहीं, बल्कि ये उस ‘डिजाइनर नारीवाद’ की तरह है, जो बाहर से सुरक्षित लगने ‘जैसा’ होता है, और उसमें ‘पीड़ित’ को ‘कथित सुरक्षा’ ‘फील’ होने लगती है।
ऐसे मामलों में जब न्याय से ज्यादा राजनीतिक सुविधा को वरीयता दी जाती है, तो नुकसान सिर्फ पीड़िताओं का नहीं होता। बल्कि ऐसे मामलों में जवाबदेही, कानून, सोच, समझ और विचारधारा को भी तिलांजलि दी जा चुकी है, बल्कि ‘न्याय’ जैसी चीज बहुत हल्की लगने लगती है।
और फिर शिकारियों का क्या? वो तो फिर से ‘पुराने ढर्रे’ पर नए शिकार के पीछे चल देता है, क्योंकि उसे पता होता है कि उसके कुकृत्यों को छिपाने के लिए ‘उसकी विचारधारा, उसका गैंग, उसका मजहब’ उसके साथ तो है ही, वो किसी न किसी आड़ में छिप ही जाएगा और अपने ‘कारनामों’ को अंजाम देते रहने में सफल होता रहेगा।
मूल लेख अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित है। इसका हिंदी भावानुवाद किया है श्रवण शुक्ल ने।