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विनायक दामोदर सावरकर: एक ऐसा नाम जिससे अंग्रेज भी काँपते थे, जो थे हिन्दू राष्ट्र के पुनर्जागरण के स्वप्नद्रष्टा

भारत के इतिहास में कुछ ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनके बारे में जितना भी लिखा जाए, वह कम ही लगता है। वीर विनायक दामोदर सावरकर (स्वातंत्र्यवीर सावरकर) ऐसा ही एक नाम हैं। जब भी मैं उनके बारे में सोचता हूँ तो सिर्फ एक क्रांतिकारी चेहरा नहीं उभरता, बल्कि एक विचार, एक चेतना और एक जीवंत राष्ट्र का स्वप्न दिखाई देता है, जो आज भी हमें अपने भारतभूमि के लिए कुछ करने के लिए प्रेरित करता है।

अंग्रेजों की नजरों में सबसे खतरनाक व्यक्ति

सावरकर अंग्रेजों के लिए केवल एक राजबंदी नहीं थे, बल्कि वे उनके लिए एक ‘Dangerous Mind’ थे। अंग्रेजों को डर था कि अगर वीर सावरकर जैसे व्यक्ति देश में खुलकर बोलने लगे, तो उनका राज एक दिन भी टिक नहीं पाएगा। और यही कारण था कि उन्हें गिरफ़्तार करके काला पानी जैसी भयावह जेल में भेजा गया, जहाँ उन्होंने 11 वर्षों तक अमानवीय यातनाएँ सही। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।

उन्होंने जिस तरह से 1857 की क्रांति को ‘भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम’ कहकर उसकी महिमा को पुनर्स्थापित किया, वह उस दौर में क्रांतिकारी सोच मानी जाती थी। उनकी लिखी किताब ‘1857 – India’s First War of Independence’ ब्रिटिश सत्ता को इतनी खतरनाक लगी कि उन्होंने उस किताब को प्रतिबंधित कर दिया।

हिन्दुत्व: धर्म नहीं, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आत्मा

सावरकर के हिन्दुत्व को अक्सर गलत समझा गया है। उन्होंने हिन्दुत्व को किसी पूजा-पद्धति से जोड़कर नहीं देखा, बल्कि यह बताया कि हिन्दू वह है जिसकी पितृभूमि और पुण्यभूमि – दोनों भारत हैं। उनका हिन्दुत्व सबको साथ लेकर चलने वाला, संगठित समाज का विचार था। उन्होंने हिन्दुओं से आह्वान किया कि वे जातिगत संकीर्णताओं से ऊपर उठें और एक राष्ट्र के रूप में संगठित हों।

उनका मानना था कि जब तक हिन्दू समाज भीतर से बँटा रहेगा, भारत मज़बूत नहीं हो सकता। वे जातिप्रथा के विरोधी थे और सामाजिक समरसता के प्रबल पक्षधर।

भारत के लिए उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था।

सावरकर के लिए भारत केवल एक भूगोल नहीं था, बल्कि वह एक जीवंत संस्कृति थी। उन्होंने तुष्टिकरण की राजनीति को स्पष्ट शब्दों में नकारा और राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखा। उनका मानना था कि अगर किसी भी वर्ग की माँगें राष्ट्र की अखंडता और संस्कृति से टकराती हैं, तो उसे सहन नहीं किया जाना चाहिए।

वे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अपनी ही संस्कृति से दूरी बनाने की प्रवृत्ति के कट्टर विरोधी थे। वे मानते थे कि भारत का निर्माण उसकी संस्कृति और मूल्यों के अनुरूप ही होना चाहिए, ना कि पश्चिमी मॉडल की नकल बनकर।

आज सावरकर क्यों जरूरी हैं?

आज जब हम भारत को फिर से वैश्विक नेतृत्व की ओर बढ़ता देख रहे हैं, तो हमें सावरकर जैसे विचारकों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। वे हमें याद दिलाते हैं कि अगर समाज संगठित हो, सांस्कृतिक रूप से सजग हो, और राष्ट्रहित में सोचने की क्षमता रखे, तो कोई शक्ति भारत को रोक नहीं सकती।

आज की राजनीति, मीडिया और शिक्षा में जिस प्रकार से इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है, उसमें सावरकर जैसे सच्चे नायकों का सम्मान और सही मूल्यांकन होना नितांत आवश्यक है।

वीर सावरकर का जीवन केवल बलिदान की कहानी नहीं है, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए दिशा है। वे केवल स्वतंत्रता सेनानी नहीं, बल्कि भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण के एक अग्रदूत थे। हमें उन्हें केवल एक ‘राजनीतिक विवाद’ तक सीमित नहीं करना चाहिए, बल्कि उनके विचारों को जनमानस तक पहुँचाना चाहिए। अगर हमें वास्तव में एक संगठित, शक्तिशाली और सांस्कृतिक रूप से जागरूक भारत बनाना है, तो सावरकर हमारे पथ-प्रदर्शक हो सकते हैं।

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