
मेघालय हनीमून मर्डर केस ने देश भर में सनसनी मचा दी है। इंदौर की नवविवाहित सोनम रघुवंशी पर अपने पति राजा रघुवंशी की हत्या का आरोप है। हत्या में शामिल सोनम का प्रेमी राज कुशवाहा भी है। इस जघन्य अपराध को लेकर विभिन्न मंचों पर बहस छिड़ी हुई है।
द प्रिंट की लेखिका अमाना बेगम ने इस हत्या और धोखे मामले को जातिगत भेदभाव और महिलाओं की स्वतंत्रता के अभाव पर एक लेख लिख दिया है।
द प्रिंट की लेखिका अमाना बेगम के अनुसार, भारत में आज भी अलग जाति में प्यार करना एक विद्रोह है, और महिलाओं को अपनी पसंद के साथी से शादी करने से रोका जाता है, जिससे वे ऐसे कदम उठाने पर मजबूर होती हैं।
‘द प्रिंट’ की लेखिका यह भी कहती है, कि अगर महिला नौकरी नहीं करती, तो उसके पास बिना मर्जी के शादी करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता। अमाना बेगम यह मानती हैं कि परिवार बच्चों को ब्लैकमेल करके ज़बरदस्ती शादी करवाते हैं, जहाँ समाज में दिखावा भावनाओं से ज़्यादा ज़रूरी होता है।
लेकिन यह सोच इस पेचीदा मामले को सिर्फ़ एक छोटे दायरे में बाँध देती है। सोनम-राजा हत्याकांड को जातिवाद या फेमिनिज्म के नज़रिए से देखना सच से भटकना है। यह एक गंभीर अपराध को किसी सामाजिक मुद्दे की चादर ओढ़ाने जैसा है। इस केस में न कोई जातिवाद है और न ही यह फेमिनिज्म का मामला है। यह तो व्यक्तिगत धोखे, लालच और अपराधी सोच का नतीजा है।
सबसे पहले, द प्रिंट का यह दावा कि यह ‘नीची जाति’ के आधार पर देखा गया मामला है, पूरी तरह से गलत है। रघुवंशी और कुशवाहा दोनों ही समाज में स्थापित समुदाय हैं। सोनम के पिता ने अपनी बेटी के भविष्य को देखकर ही उसकी शादी एक अच्छे परिवार में करवाई होगी। यह किसी भी माता-पिता का फर्ज है कि वे अपनी संतान के लिए सबसे अच्छा जीवनसाथी चुनें, ख़ासकर जब उनकी बेटी पढ़ी-लिखी और अच्छे परिवार से हो।
सवाल यह भी उठता है कि क्या कोई पिता अपनी बेटी को उस व्यक्ति के हवाले करेगा, जो उसकी ही फैक्ट्री में एक कर्मचारी के तौर पर काम करता हो? सामाजिक और आर्थिक स्तर में यह अंतर अक्सर परिवारों को ऐसे रिश्तों को स्वीकार करने से रोकता है।
यह कोई ‘जातिगत भेदभाव’ नहीं, बल्कि भविष्य में स्थिरता और बराबरी लाने की एक प्रेक्टिकल सोच है। एक पिता हमेशा अपनी बेटी के लिए सुरक्षित, खुशहाल और सामाजिक रूप से स्वीकार्य परिवार चाहता है। यह कोई पुरानी सोच नहीं, बल्कि हर इंसान की स्वाभाविक इच्छा है।
दूसरा अहम मुद्दा राज कुशवाहा और सोनम के रिश्ते का दिखावा है। जानकारी के अनुसार, राज कुशवाहा लोगों के सामने सोनम को ‘दीदी’ बुलाता था और अपनी कलाई पर ‘राखी भी बँधवाता’ था। यह भाई-बहन के रिश्ते का संकेत है, जिसे समाज में सम्मान मिलता है।
लेकिन पर्दे के पीछे, वे प्रेमी-प्रेमिका की भूमिका निभा रहे थे और राज कुशवाहा सोनम को ‘पत्नी’ की तरह ट्रीट करता था। यह दोहरा व्यवहार न केवल धोखे का प्रतीक है, बल्कि समाज के बनाए गए नियमों और मर्यादाओं को भी तोड़ता है।
इससे साफ पता चलता है कि उनके रिश्ते में पारदर्शिता नहीं थी और वे जानते थे कि उनका रिश्ता समाज में स्वीकार नहीं होगा। ऐसे में, इस आपराधिक घटना का इल्जाम ‘समाज’ पर डालना या इसे ‘जातिवाद’ का नतीजा बताना पूरी तरह से गलत है।
द प्रिंट का यह तर्क कि ‘अगर महिला नौकरी नहीं करती तो उसके पास शादी के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता’ और उसे ज़बरदस्ती शादी करनी पड़ती है, यह भी हर स्थिति पर लागू नहीं होता। सोनम का परिवार आर्थिक रूप से मज़बूत था। उसके पिता और भाई बड़े ट्राँसपोर्ट कारोबारी हैं। वह खुद भी अपने भाई के काम में शामिल थी और हवाला कारोबार से जुड़ी थी, जहाँ उसने राज के खातों में बड़ी रकम भी भेजी थी।
यह बताता है कि वह किसी भी तरह से ‘कमज़ोर’ या ‘लाचार’ नहीं थी। अगर वह अपनी शादी से नाखुश थी या राज से शादी करना चाहती थी, तो उसके पास और भी कई रास्ते थे। लेकिन उसने हत्या का रास्ता चुना, जिसे किसी भी तर्क से सही नहीं ठहराया जा सकता।
समाज में दिखावे को महत्व देने की बात द प्रिंट ने कही है। हाँ, समाज में दिखावा होता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि परिवार के हर फ़ैसले सिर्फ दिखावे के लिए होते हैं। ज़्यादातर माता-पिता अपनी संतानों की खुशी और भविष्य की परवाह करते हैं।
अगर सोनम और राज कुशवाहा का रिश्ता इतना गहरा और सच्चा था, तो उन्हें खुलकर इसका सामना करना चाहिए था, न कि धोखाधड़ी और हत्या की योजना बनानी चाहिए थी। यह ‘समाज के दिखावे’ का नहीं, बल्कि व्यक्तिगत स्वार्थ और आपराधिक सोच का परिणाम है।
आखिर में यही कहेंगे कि सोनम-राजा रघुवंशी मामला जाति या फेमिनिज्म का मुद्दा नहीं है। यह एक पहले से सोची-समझी हत्या का मामला है, जहाँ प्यार के नाम पर एक बेकसूर की जान ले ली गई।
ऐसे अपराधों को सामाजिक मुद्दों का रंग देकर अपराधियों के कामों को हल्का करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। सोनम और राज, अगर दोषी पाए जाते हैं, तो उन्हें कानून के हिसाब से सज़ा मिलनी चाहिए, और किसी भी सामाजिक या वैचारिक आधार पर उनके अपराध को सही ठहराने की कोशिश निंदनीय है।