हाल ही में, अभिनेता-निर्माता फरहान अख्तर की आने वाली फिल्म ‘120 बहादुर’ देश में एक बड़े विवाद का कारण बन गई है। रविवार (26 अक्तूबर 2025) को, अहीर समाज के सैकड़ों लोगों ने फिल्म के विरोध में दिल्ली-NH-48 हाईवे पर एक विशाल पैदल मार्च निकाला। इस विरोध के कारण हाईवे पर कई किलोमीटर लंबा जाम लग गया। ये प्रदर्शनकारी संयुक्त अहीर रेजिमेंट मोर्चा के बैनर तले एकजुट हुए थे।
अहीर समाज का विरोध इसलिए है, क्योंकि यह फिल्म 1962 के भारत-चीन युद्ध की एक महान गाथा ‘लद्दाख के रेजांग ला दर्रे की लड़ाई’ पर आधारित है। इस लड़ाई में 13 कुमाऊं रेजिमेंट की ‘सी’ कंपनी के 120 अहीर जवानों ने अद्भुत वीरता दिखाते हुए अपनी जान की बाजी लगाई थी। प्रदर्शनकारियों का मानना है कि फिल्म का नाम ‘120 बहादुर’ इन 120 वीर अहीर जवानों के बलिदान और विशिष्ट पहचान को सही तरीके से नहीं दिखा रहा है।
विरोध कर रहे अहीर समाज की मुख्य माँग है कि फिल्म का नाम तुरंत बदला जाए। वे चाहते हैं कि नाम को ‘120 वीर अहीर’ रखा जाए ताकि यह उनके समुदाय के विशेष योगदान को दर्शाए। प्रदर्शनकारियों ने साफ चेतावनी दी है कि जब तक यह नाम नहीं बदला जाता, तब तक वे हरियाणा समेत उन सभी राज्यों में फिल्म को रिलीज नहीं होने देंगे, जहाँ अहीर समुदाय के लोग रहते हैं। इस विरोध ने एक बार फिर रेजांग ला की ऐतिहासिक और भावनात्मक कहानी को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का केंद्र बना दिया है।
भारत-चीन युद्ध 1962: रेजांग ला का सामरिक महत्व
1962 का भारत-चीन युद्ध भारतीय इतिहास का एक पीड़ादायक अध्याय है, लेकिन इसी संघर्ष में रेजांग ला की लड़ाई भारतीय सेना के अदम्य साहस और शौर्य का प्रतीक बनकर उभरी। इस युद्ध की जड़ें 1961 में पनपनी शुरू हो गईं थीं। उस समय, भारत चीनी अतिक्रमणों से बुरी तरह त्रस्त था। विशेष रूप से तब, जब चीन द्वारा भारतीय क्षेत्र से होते हुए शिनजियांग और तिब्बत को जोड़ने वाली एक सामरिक सड़क बनाने की खबरें सामने आईं।
इस स्थिति का मुकाबला करने के लिए, तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने एक साहसिक निर्णय लिया, जिसे ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ नाम दिया गया। यह एक जोखिमभरा दाँव था, जिसके तहत भारतीय सेना को निर्देश दिया गया कि वे विवादित सीमा पर, यहाँ तक कि चीनी चौकियों के ठीक सामने भी, अपनी छोटी सैन्य चौकियाँ स्थापित करें और डटकर खड़े रहें।
इस नीति के परिणामस्वरूप सीमा पर तनाव चरम पर पहुँच गया। जबकि चीन ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के कूटनीतिक नारे की आड़ में अपनी सैन्य ताकत को तेजी से बढ़ा रहा था। अंततः, 20 अक्टूबर 1962 को, यह बढ़ता तनाव एक पूर्ण युद्ध में बदल गया, जब चीन ने एक साथ कई भारतीय चौकियों पर विनाशकारी हमला बोल दिया।
लेह की अंतिम सुरक्षा दीवार
नवंबर 1962 तक, भारतीय सेना को पीछे हटकर लद्दाख की राजधानी लेह तक आना पड़ा था। अब सारी तैयारी लेह को बचाने की थी। लेह की सुरक्षा का सबसे जरूरी ठिकाना था रेजांग ला। रेजांग ला कोई आम जगह नहीं थी। यह करीब 18,000 फीट (लगभग 5,500 मीटर) की बहुत ऊँची पहाड़ी पर मौजूद एक दर्रा था।
यह दर्रा चुशूल घाटी की हिफाजत करता था। अगर चीन चुशूल घाटी तक पहुँच जाता, तो लेह तक जाने का रास्ता उसके लिए खुल जाता। इसलिए, चीन के लिए रेजांग ला को पार करना बेहद जरूरी था और भारत के लिए यह दर्रा किसी भी कीमत पर बचाना आखिरी और सबसे बड़ी चुनौती थी।
रेजांग ला के रक्षक: ‘चार्ली कंपनी’ के 120 सूरमा
रेजांग ला की हिफाजत करने का मुश्किल काम 13 कुमाऊं रेजिमेंट की ‘चार्ली कंपनी’ को मिला था। इस कंपनी की कमान मेजर शैतान सिंह भाटी संभाल रहे थे। इस कंपनी में कुल 120 जाँबाज जवान थे। इन जवानों में से ज्यादातर सैनिक हरियाणा के अहीर (यादव) समुदाय से थे। उनके पास जंग लड़ने के लिए बहुत कम सामान था। बस पुरानी राइफलें, मोर्टार और उनकी सबसे बड़ी ताकत, यानी हार न मानने का पक्का इरादा। ये जवान इस बेहद मुश्किल चुनौती का सामना करने के लिए तैयार थे।
18 नवंबर 1962: बर्फीली रात, जब चीनियों ने हमला बोला
18 नवंबर 1962 की सुबह, करीब 3:00 बजे का वक्त था। वहाँ बर्फीली हवाएँ चल रही थीं और तापमान माइनस 25 डिग्री से भी नीचे था। लांस नायक हुकुम सिंह के साथ चार जवानों की एक छोटी-सी चौकी (लिस्निंग पोस्ट) तैनात थी। घने कोहरे के बीच, उन्हें दिखाई दिया कि सैकड़ों चीनी सैनिक चुपके से पहाड़ी की तरफ बढ़ रहे हैं।
चीनी अपनी भारी तोपों (मोर्टार) की मदद से हजारों की संख्या में हमला करने आ रहे थे। हुकुम सिंह के बहादुर जवानों ने फौरन इसकी खबर अपनी मुख्य कंपनी को पहुँचाई। हुकुम सिंह जानते थे कि उनके सामने सैकड़ों दुश्मन हैं, फिर भी उन्होंने पीछे हटने से साफ मना कर दिया।
हुकुम सिंह ने कहा, “हम दुश्मन को जितनी देर तक रोकेंगे और उन्हें मारेंगे, हमारी कंपनी को जीतने का उतना ही अच्छा मौका मिलेगा।” जैसे ही हुकुम सिंह ने आदेश दिया, उनकी बंदूकों से गोलियाँ बरसने लगीं। चीनी सेना की पहली कतार इस अचानक हमले से पूरी तरह हैरान रह गई।
आखिरी साँस तक लोहा: जब जवानों ने खाली हाथों से भी लड़ी जंग
जैसे ही चीनियों का बड़ा हमला भारतीय मोर्चे पर शुरू हुआ, मेजर शैतान सिंह अपनी जगह पर मजबूती से खड़े हो गए। दुश्मन ने तीन तरफ से हमला किया और ‘चार्ली कंपनी’ को घेरने की पूरी कोशिश की। लेकिन, हर तरफ से हो रहे हमले का जवाब भारतीय जवानों ने गोलियों की जबरदस्त बौछार से दिया।
नाएब सूबेदार सूरजा की 7 नंबर की टुकड़ी (प्लाटून) पर करीब 400 चीनी सैनिकों ने धावा बोला। भारतीय जवानों की मोर्टार (एक तरह की तोप) से हुई फायरिंग ने चीनियों को भारी नुकसान पहुँचाया। फिर भी, चीनी सैनिक अपने मारे गए साथियों की परवाह किए बिना लगातार आगे बढ़ते रहे।
एक वक्त ऐसा भी आया, जब कुछ अहीर जवानों का गोला-बारूद खत्म हो गया। तब भी वे नहीं रुके, उन्होंने खाली हाथों से ही दुश्मन से लड़ाई शुरू कर दी। दो जवान तो चीनी सैनिकों की मशीनगन पोस्ट की तरफ दौड़ पड़े, लेकिन शहीद हो गए।
एक ताकतवर अहीर जवान ने एक चीनी सिपाही को पकड़ा और उसे उठाकर रेजांग ला की चट्टानों से नीचे फेंक दिया। जब नाएब सूबेदार सूरजा के सिर में गोली का टुकड़ा (छर्रा) लगा, तो उनके आखिरी शब्द थे- ‘लड़ते रहो, 13 कुमाऊं का नाम ऊँचा रखो’।
कमांडर का हौसला: मेजर शैतान सिंह का सबसे बड़ा बलिदान
जब चारों तरफ गोलियाँ और गोले बरस रहे थे, तब भी मेजर शैतान सिंह डटे रहे। वह लगातार एक चौकी से दूसरी चौकी पर जाते रहे। उनका काम था जवानों का हौसला बनाए रखना, टूटे हुए बचाव को ठीक करना और दुश्मन की तरफ फायरिंग का सही निशाना लगवाना। लड़ते-लड़ते वह खुद एक मशीनगन के फटने से बुरी तरह घायल हो गए।
परमवीर मेजर शैतान सिंह की तस्वीर
मगर, मेजर शैतान सिंह ने अपनी जगह से हटने या इलाज के लिए जाने से साफ मना कर दिया। मेजर सिंह ने अपने जवानों को आदेश दिया कि उन्हें वहीं छोड़कर वे लड़ाई जारी रखें। मेजर सिंह के आखिरी शब्द थे- ‘बटालियन को बताना कि कंपनी कितनी बहादुरी से लड़ी।’
तीन महीने बाद, उनका शरीर ठीक उसी जगह बर्फ में मिला। देश के लिए इस सबसे बड़े साहस, शानदार नेतृत्व और अंतिम बलिदान के लिए, उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र दिया गया, जो भारत का सबसे बड़ा वीरता सम्मान है।
रेजांग ला का इतिहास: ट्रिगर पर जमी उंगलियों की दास्तान
सुबह 8 बजे तक, रेजांग ला की भीषण लड़ाई खत्म हो चुकी थी। सिर्फ पाँच घंटों की इस लड़ाई में, 13 कुमाऊं की ‘चार्ली कंपनी’ ने बहादुरी की एक ऐसी कहानी लिख दी, जो सेना के इतिहास में बहुत कम सुनने को मिलती है।
मेजर शैतान सिंह के सभी जवान अपनी आखिरी साँस तक लड़े। 120 बहादुर सैनिकों में से 114 जवान शहीद हो गए। सिर्फ चार जवान ही बच पाए। 1963 में, जब बर्फ पिघली और जवानों के शव मिले, तो हैरान करने वाला नजारा था। ज्यादातर जवान अभी भी अपनी बंदूकें पकड़े हुए थे और उनका रुख दुश्मन की तरफ था। उन्हें गोलियों और संगीनों से कई गहरे घाव लगे थे।
इस छोटी-सी भारतीय टुकड़ी ने चीन को भारी नुकसान पहुँचाया। मेजर जनरल जगजीत सिंह के मुताबिक, चीन के लगभग 500 सैनिक मारे गए थे। इस लड़ाई ने यह साबित कर दिया कि भारतीय सैनिक कितने पक्के इरादे वाले होते हैं। रेजांग ला की यह लड़ाई आज भी देश के लिए अदम्य साहस की निशानी है।
रेजांग ला का गौरव: शहीदों को सलाम
रेजांग ला की लड़ाई हमारे देश की सेना के इतिहास में बहादुरी की सबसे बड़ी मिसालों में से एक है। इन शहीदों को सम्मान देने के लिए, रेजांग ला में एक युद्ध स्मारक (वॉर मेमोरियल) बनाया गया है। 18 नवंबर 2021 को, इस लड़ाई की 59वीं सालगिरह पर इस स्मारक को नया रूप दिया गया। देश के रक्षा मंत्री ने इसका उद्घाटन किया था। यह स्मारक आज भी उन 120 वीर अहीर जवानों के बलिदान और भारतीय सेना के अटूट साहस की कहानी दुनिया को बताता है।







