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नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भेड़िया धँसान भीड़ क्योंकि सिस्टम को नहीं है सिविक सेंस

नवंबर 2004: नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ में 5 लोगों की मौत। जिम्मेदार: छठ

मई 2010: नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ में 2 मौतें। जिम्मेदार: गर्मी की छुट्टी

फरवरी 2025: नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ में 18 मरे। जिम्मेदार: महाकुंभ

15 फरवरी 2025 की रात पहली बार नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ नहीं मची। पहली बार मौतें नहीं हुईं। पहली बार जिम्मेदारों को बचाने के लिए भीड़ को दोषी साबित करने की कोशिश नहीं हुई।

लेकिन इस शोर में यह बात नहीं हुई कि हर बार भगदड़ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के उसी हिस्से में क्यों मचती है जो अजमेरी गेट की तरफ से करीब पड़ता है? हर बार भगदड़ में मरने वाले उन्हीं ट्रेनों में सवार होने के लिए क्यों आए रहते हैं जो यूपी-बिहार-झारखंड जैसे प्रदेशों (जिन्हें दिल्ली की राजनीतिक शब्दावली में पूर्वांचल कहते हैं) की ओर जा रही होती है? उस भय की भी बात नहीं हुई जिसके साथ हम पूर्वांचल के लोग हर बार इन ट्रेनों में सफर करते हैं और भारतीय रेलवे को गरियाते हुए अपने घरों तक जाते हैं।

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर क्यों मची भगदड़

आधिकारिक जानकारियों पर ‘यकीन’ करें तो प्रयागराज जाने वाली स्पेशल ट्रेन का प्लेटफॉर्म बदलने की कोई घोषणा नहीं हुई। प्लेटफॉर्म 14 और 15 नंबर पर एक तरफ प्रयागराज स्पेशल पर चढ़ने के लिए लोग सवार थे, दूसरी तरफ स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस में चढ़ने के लिए लोग जुटे थे। इसी दौरान प्लेटफॉर्म नंबर 16 पर प्रयागराज स्पेशल ट्रेन आने की घोषणा हुई। लोगों को लगा कि उनकी ट्रेन अब 16 नंबर पर आएगी। 16 नंबर प्लेटफॉर्म तक जल्दी से जल्दी पहुँचने की होड़ में सीढ़ी पर किसी का पैर फिसला और फिर एक-एक कर लोग गिरते गए और उनके ऊपर से चढ़कर लोग बढ़ते गए।

भगदड़, भीड़ और सोशल मीडिया के ‘वीर’

सोशल मीडिया के धुरंधरों का कहना है कि भीड़ इसलिए मची क्योंकि पूर्वांचल के लोगों में ‘सिविक सेंस’ नहीं है। कुछ का कहना है कि हमारी ‘क्रयशक्ति’ बढ़ गई है इसलिए हम सफर अधिक करने लगे हैं। अपने तीर्थ स्थलों पर भेड़िया धँसान जाने लगे हैं। साथ में अपने बच्चों, बुजुर्ग माँ-बाप, कुटुम्बों को लेकर जा रहे हैं। उपदेश भी दिया जा रहा है कि जब भीड़ है तो महाकुंभ में क्यों जा रहे हैं। भीड़ है तो ट्रेन में चढ़ने क्यों आ रहे हैं। भविष्य के लिए चेतावनी भी दी जा रही है कि इतने लोग जुटेंगे तो कोई कुछ नहीं कर सकता। माने आपको अकाल मौत मरना ही होगा। इनके अलावा हर मामले में ‘षड्यंत्र’ सूँघ लेने वाली प्रजाति अलग ही स्तर पर थेथरई कर रही है।

मैं भी उस भीड़ का हिस्सा हूँ जो अभिशप्त और अभ्यस्त है

मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा हूँ जिसमें सिविक सेंस नहीं है। मैं भी नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के उन्हीं प्लेटफॉर्मों से ट्रेन पकड़ता हूँ, जहाँ भगदड़ मचती है। मैं भी उन्हीं ट्रेनों में सवार होता हूँ, जिसमें चढ़ने के लिए आने वाले लोग भगदड़ में मर जाते हैं। आपको लगेगा कि मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मैं छठ की उस भीड़ का हिस्सा नहीं था। गर्मी छुट्टी में घर जाने वाली उस भीड़ का हिस्सा मेरी पत्नी-बच्चे नहीं थे। महाकुंभ जाने वाली उस भीड़ का हिस्सा मेरे माता-पिता नहीं थे।

पर मैं भाग्यशाली नहीं हूँ, ​क्योंकि मैं जब भी नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर आता हूँ तो मुझे ऐसी ही भीड़ मिलती है। हर बार मुझे ट्रेन के कोच में अपनी बर्थ से बाथरूम तक पहुँचने में कसरत करनी पड़ती है। कभी भी मुझे आसानी से टिकट नहीं मिलता है। यहाँ तक कि मुझे ट्रेन में चढ़ाने के लिए आया हुआ व्यक्ति भी अक्सर रेलवे स्टेशन के बाहर से ही चला जाता है, क्योंकि पूर्वांचल की तरफ जाने वाली ट्रेनों के प्लेटफॉर्म टिकट की बिक्री कब बंद कर दी जाए, इसका कोई पूर्वानुमान नहीं लगा सकता।

असल में मैं अभिशप्त हूँ। धक्का-मुक्की, रेलम-पेल का अभ्यस्त हूँ। क्योंकि ‘व्यवस्था’ ने मुझे यही सिखाया है, ‘सिविक सेंस’ नहीं।

मैं लाइन से ही रेलवे स्टेशन में घुसा था

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन, भारत के किसी गाँव-देहात का खुला रेलवे स्टेशन नहीं है। इस रेलवे स्टेशन में प्रवेश करने के लिए लोगों को लाइन में लगना पड़ता है। स्कैनर से गुजरना होता है। अपने सामान बैगेज स्कैनर में डालने होते हैं। एक पौवा भी दिखने पर सुरक्षाकर्मी आपको लाइन से अलग कर किनारे ले जाते हैं। जाँच की प्रक्रिया से गुजरकर ही आप स्टेशन के भीतर प्रवेश करते हैं। उस प्लेटफॉर्म पर पहुँचते हैं, जहाँ आपकी ट्रेन आने की सूचना होती है। इसमें भीड़ के हिसाब से कभी भी सहूलियत नहीं दी जाती है। देनी भी नहीं चाहिए। इस दौरान कहीं भी यह सुनिश्चित नहीं किया जाता है कि आपके पास ट्रेन में चढ़ने का या प्लेटफॉर्म का टिकट है या नहीं। यही प्रक्रिया भी है।

पर आप जब प्लेटफॉर्म पर पहुँचते हैं तो हमेशा ट्रेन की क्षमता से इतने अधिक लोग होते हैं जिसे भीड़ कहा जा सके। ट्रेन में चढ़ने के लिए वैसी ही मारामारी होती है जैसा भीड़ की स्थिति में होता है। यह जरूर है कि इसकी तीव्रता सामान्य कोच में सबसे ज्यादा, उससे कम शयनयान कोच और उससे कम वातानुकूलित तृतीय श्रेणी में होता है। वातानुकूलित प्रथम श्रेणी में ऐसा हुड़दंग नहीं दिखता है।

जाहिर है मैं सिविक सेंस के साथ ही रेलवे स्टेशन के भीतर घुसा था। आपकी व्यवस्था के हिसाब से ही आगे बढ़ा था। पर प्लेटफॉर्म पर व्यवस्था का कोई ‘सिविक सेंस’ नहीं है, मजबूरन मैं भीड़ हो जाता हूँ।

कौन लोग बनाते हैं मुझे ट्रेन की भीड़

मौजूदा नियम है कि आप अपनी यात्रा से 60 दिन पहले टिकट आरक्षित करवा सकते हैं। पूर्वांचल की तरफ जाने वाली ट्रेनों में आरक्षण खुलते ही सीटें फुल हो जाती हैं। उसके बाद धकाधक वेटिंग काटी जाती है। लोग पैसा देकर भी वेटिंग इस उम्मीद में नहीं लेते कि टिकट कन्फर्म हो जाएगा। यह तो भगवान भरोसे है। वेटिंग टिकट इसलिए लेते हैं क्योंकि यात्रा की तिथि आगे बढ़ाने पर भी किस्मत नहीं बदलनी है। कमोबेश सालभर यही हाल होता है।

आप बिना सामान्य टिकट के भी इन ट्रेनों में सवार हो सकते हैं। रेलवे की तरफ से प्लेटफॉर्म पर ही टीसी तैनात किए जाते हैं। वे फाइन के साथ आपका टिकट बना देते हैं, अब आप किसी भी डिब्बे में अब चढ़ सकते हैं। जबकि रेलवे को पहले से ही पता होता है कि ट्रेन की क्षमता से कहीं अधिक टिकट बुक हो चुके हैं।

रेलवे सुरक्षाकर्मी पैसे लेकर सामान्य डिब्बों में लोगों को घुसाते हैं। इन डिब्बों में इतनी अधिक भीड़ होती है कि टिकट चेक करना भी संभव नहीं होता है। यानी कुछ रुपए देकर आप दिल्ली से दरभंगा जैसी जगहों पर जा सकते हैं।

कोच अटेंडेंट अपनी सीट बेचते हैं। पैंट्री कार की सीट बेची जाती है। यहाँ तक कि जेनरेटर यान में गार्ड के लिए बने कक्ष की भी बिक्री होती है। जिनकी तैनाती नियम-कायदों का पालन सुनिश्चित करवाने, यात्रियों की सहूलियत सुनिश्चित करने के लिए की जाती है, उन्हीं लोगों ने पूर्वांचल जानी वाली सभी ट्रेनों में मिल बाँटकर खाने वाला पूरा सिस्टम विकसित कर रखा है।

माना है कि हमें सिविक सेंस नहीं है। लेकिन आपके सिस्टम का यह कैसा ‘सिविक सेंस’ है जो मुझे अपनी मेहनत की कमाई से आरक्षित की गई सीट पर भी आराम से सफर करने की सहूलियत नहीं दे पाता है।

मुझे भीड़ बनने से कैसे बचा सकते हैं

हमारे इलाकों से मजबूरी का पलायन होता है। कारण रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा हैं। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा-स्वास्थ्य की सुविधा हमें अपने इलाकों में ही उपलब्ध करवाइए, उद्योग-धंधे दीजिए, ताकि मजबूरी का पलायन रुके। फिर एक साथ घर लौटने की ऐसी होड़ भी नहीं दिखेगी जो भीड़ बन जाती है।

य​दि ऐसा नहीं कर सकते तो फिर रेलवे को अपने इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने ही होंगे। वह चाहे प्लेटफार्म की संख्या बढ़ानी हो, अजमेरी गेट की तरफ से स्टेशन का विस्तार करना हो या फिर ट्रेन की संख्या बढ़ानी हो। वेटिंग टिकट काट-काटकर, फाइन वाले टिकट-काट काटकर राजस्व बढ़ाने की प्रवृत्ति छोड़नी होगी। स्पेशल ट्रेनों को समयबद्ध करना होगा। ऐसी हर एक ट्रेन की अलग पहचान सुनिश्चित करनी होगी।

रेलवे कर्मचारियों की जिम्मेदारी तय करनी होगी। सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी स्थिति में आरक्षित सीटों से अधिक यात्री डिब्बे में सफर नहीं करें। सामान्य डिब्बों में भी संख्या सुनिश्चित करनी होगी। यात्री जैसे ही भीड़ बनते दिखे उन्हें डायवर्ट करने की तत्काल व्यवस्था करनी होगी।

हमारी इन आकांक्षाओं का भार PM मोदी पर ही है

व्यवस्था पर सवाल करना, जवाबदेही तय करने की माँग करना, सरकार की नीयत पर संदेह जताना नहीं है। वैसे भी जो प्रधानमंत्री (नरेंद्र मोदी) देश के गाँव-गाँव में रहने वाले लोगों के आवास, शौचालय, राशन तक की चिंता करता हो, उसे पूर्वांचल के लोगों को ट्रेनों में होने वाली तकलीफों का पता नहीं हो, यह माना नहीं जा सकता। यह सत्य है कि इस सरकार में दशकों से अटकी परियोजनाओं पर काम हुआ है। रेलवे के आधुनिकीकरण ने जोर पकड़ा है। यह भी सत्य है कि मौजूदा इंफ्रास्ट्रक्चर की एक क्षमता है और उससे अधिक बोझ नहीं बढ़ाया जा सकता। यह भी सत्य है कि इस समस्या का रातोंरात समाधान नहीं हो सकता है।

लेकिन इसका समाधान हादसों पर पर्दा डालना भी नहीं है। ‘भक्तों’ को समझना होगा कि कभी-कभी जबरन की छवि बचाने की कोशिश, छवि को कितना नुकसान कर जाती है, इसका पता तक नहीं चलता है। नहीं तो क्या कारण है कि जिसके नेतृत्व में बीजेपी ने राजनीति की नई ऊँचाइयों को छुआ, उसके ही अगुआई में 240 पर आ गई और सरकार उन सहयोगियों के भरोसे पर टिक गईं जिनके अपने क्षेत्रीय एजेंडे हैं।

हमने नरेंद्र मोदी जैसा लोक की चिंता करने वाला नेतृत्व नहीं देखा। इसलिए हमारे सवाल तीखे हैं। हमारी आकांक्षाओं का बोझ भारी है। इसलिए हम अभिशप्त और अभ्यस्त वाली स्थिति से बाहर आने को तड़फड़ा रहे हैं।

माना हम में सिविक सेंस नहीं हैं, पर ह्रदय पर हाथ रखकर कहिए- क्या हमारे सवालों में भी ‘सेंस’ नहीं हैं?

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