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शरिया अदालत, कोर्ट ऑफ काजी, दारुल कजा… जो भी कहना हो कहिए, पर इनकी कानूनी औकात कुछ भी नहीं: सुप्रीम कोर्ट ने किया साफ, कहा- इनका आदेश मानने की बाध्यता नहीं

सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में साफ कर दिया है कि भारत में शरिया अदालत, काजी कोर्ट, दारुल कजा या इसी तरह के किसी भी संस्थान की कोई कानूनी मान्यता नहीं है। इनके द्वारा दिए गए कोई भी आदेश या फैसले कानूनन लागू नहीं किए जा सकते। यह फैसला जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसनुद्दीन अमानुल्लाह की बेंच ने सुनाया।

इस मामले में एक महिला शहजाहन ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें फैमिली कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा गया था। फैमिली कोर्ट ने शहजाहन को भरण-पोषण देने से इनकार कर दिया था, क्योंकि उसने एक काजी कोर्ट के समझौता पत्र के आधार पर यह माना था कि शहजाहन ही वैवाहिक विवाद की जिम्मेदार थी।

रिपोर्ट के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई के दौरान फैमिली कोर्ट के तर्कों को खारिज करते हुए कहा कि काजी कोर्ट या शरिया अदालत का कोई कानूनी आधार नहीं है। जस्टिस अहसनुद्दीन अमानुल्लाह ने अपने फैसले में लिखा, “काजी कोर्ट, दारुल कजा कजियत कोर्ट, शरिया कोर्ट आदि, चाहे इन्हें किसी भी नाम से पुकारा जाए, इनकी कानून में कोई मान्यता नहीं है। जैसा कि विश्व लोचन मदन बनाम भारत सरकार (2014) में कहा गया, ऐसे संस्थानों द्वारा दी गई कोई भी घोषणा या फैसला किसी पर बाध्यकारी नहीं है और इसे जबरन लागू नहीं किया जा सकता। ऐसी घोषणा या फैसला तभी कानूनी जाँच में टिक सकता है, जब संबंधित पक्ष इसे स्वीकार करें और उसका पालन करें, बशर्ते यह किसी अन्य कानून से टकराव न पैदा करे। फिर भी, ऐसी घोषणा या फैसला केवल उन पक्षों के बीच ही मान्य होगा, जो इसे स्वीकार करते हैं, न कि किसी तीसरे पक्ष पर।”

यह मामला शहजाहन और उनके शौहर के बीच निकाह और तलाक से जुड़ा है। शहजाहन का निकाह 24 सितंबर 2002 को उत्तर प्रदेश के एक व्यक्ति के साथ इस्लामी रिवाजों से हुई थी। यह दोनों का दूसरा निकाह था। साल 2005 में शौहर ने भोपाल, मध्य प्रदेश के काजी कोर्ट में ‘तलाक मुकदमा नंबर 325’ दायर किया, जो 22 नवंबर 2005 को दोनों पक्षों के बीच हुए समझौते के आधार पर खारिज हो गया। समझौते में दोनों ने साथ रहने और एक-दूसरे को शिकायत का मौका न देने का वादा किया था।

साल 2008 में शौहर ने दारुल कजा कजियत कोर्ट में फिर से तलाक के लिए मुकदमा दायर किया। उसी साल शहजाहन ने फैमिली कोर्ट में आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की माँग की। साल 2009 में दारुल कजा कोर्ट ने तलाक को मंजूरी दे दी और तलाकनामा जारी हुआ। लेकिन फैमिली कोर्ट ने शहजाहन की भरण-पोषण की माँग को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि शौहर ने शहजाहन को नहीं छोड़ा, बल्कि उनके स्वभाव और व्यवहार की वजह से ही विवाद हुआ और वह खुद घर छोड़कर चली गईं।

सुप्रीम कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के इस तर्क को गलत ठहराया। कोर्ट ने कहा कि फैमिली कोर्ट ने यह मान लिया कि चूँकि यह दोनों का दूसरा निकाह था, इसलिए दहेज की माँग की संभावना नहीं थी। जस्टिस अमानुल्लाह ने कहा, “फैमिली कोर्ट का यह तर्क कानून के सिद्धांतों से परे है और केवल अनुमान पर आधारित है। कोर्ट को यह मान लेना कि दूसरे निकाह में दहेज की माँग नहीं हो सकती, गलत है।”

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी साफ किया कि 2005 के समझौता पत्र में शहजाहन ने अपनी गलती स्वीकार नहीं की थी, जैसा कि फैमिली कोर्ट ने माना था। समझौता पत्र में केवल यह लिखा था कि दोनों पक्ष साथ रहेंगे और एक-दूसरे को परेशान नहीं करेंगे। कोर्ट ने कहा कि इस आधार पर शहजाहन को भरण-पोषण से वंचित करना गलत है।

सुप्रीम कोर्ट ने शौहर को आदेश दिया कि वह शहजाहन को हर महीने 4,000 रुपये भरण-पोषण के रूप में दे, और यह राशि उस तारीख से लागू होगी, जब शहजाहन ने फैमिली कोर्ट में आवेदन दिया था। कोर्ट ने यह भी कहा कि बच्चों के लिए दी गई भरण-पोषण राशि भी आवेदन की तारीख से लागू होगी, लेकिन बेटी के लिए यह केवल तब तक लागू होगा, जब तक वह नाबालिग थी। शौहर को चार महीने के भीतर फैमिली कोर्ट में यह राशि जमा करने का निर्देश दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि धारा 125 एक कल्याणकारी कानून है, जिसका मकसद बीवी और बच्चों को बेसहारा होने से बचाना है। कोर्ट ने कहा कि न्यायिक प्रक्रिया में देरी की वजह से आवेदक को नुकसान नहीं होना चाहिए। इस फैसले ने न केवल शरिया अदालतों की कानूनी स्थिति को स्पष्ट किया, बल्कि महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए एक मजबूत संदेश भी दिया।

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