
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश में गैरकानूनी धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए बनाए गए कानून – उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म परिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2021 के तहत एक अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा है कि अगर सामूहिक धर्म परिवर्तन जबरदस्ती, प्रलोभन या धोखाधड़ी से किया जा रहा हो, तो पुलिस अधिकारी बिना किसी पीड़ित या उनके रिश्तेदार की शिकायत के भी FIR दर्ज कर सकता है।
यह फैसला जस्टिस विनोद दिवाकर की बेंच ने सुनाया, जिसमें जौनपुर जिले में दर्ज एक FIR को रद्द करने की माँग वाली याचिका को खारिज कर दिया गया।
रिपोर्ट्स के मुताबिक, दुर्गा यादव नाम के आरोपित ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। उस पर आरोप है कि उसने जौनपुर के विक्रमपुर में एक चर्च में गरीब ग्रामीणों को मुफ्त इलाज और पैसे का लालच देकर ईसाई मजहब अपनाने के लिए प्रेरित किया। यह काम कथित तौर पर ईसाई प्रार्थना सभाओं के नाम पर किया जा रहा था। इस मामले में थाने के SHO (थानाध्यक्ष) ने FIR दर्ज की थी, जिसमें दुर्गा यादव और कुछ अन्य लोगों पर गैरकानूनी धर्मांतरण के आरोप लगाए गए थे।
दुर्गा यादव के वकील ने दलील दी कि 2021 के कानून की धारा 4 के तहत केवल ‘पीड़ित व्यक्ति’ या उनके नजदीकी रिश्तेदार ही शिकायत दर्ज कर सकते हैं। उसका कहना था कि SHO द्वारा दर्ज FIR गैरकानूनी है, क्योंकि वह इस मामले में ‘पीड़ित व्यक्ति’ नहीं है।
हाई कोर्ट ने खींच दी लकीर
जस्टिस विनोद दिवाकर ने इस दलील को सिरे से खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि धारा 4 में ‘किसी भी पीड़ित व्यक्ति’ का मतलब केवल पीड़ित या उनके रिश्तेदारों तक सीमित नहीं है। कोर्ट ने माना कि इस शब्द का दायरा व्यापक है और इसमें पुलिस अधिकारी जैसे लोग भी शामिल हो सकते हैं, जो सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कार्रवाई करते हैं। कोर्ट ने कहा कि अगर इस शब्द को संकीर्ण अर्थ में लिया जाए, तो यह कानून अपने मकसद को पूरा करने में नाकाम हो जाएगा, खासकर तब जब बात सामूहिक धर्म परिवर्तन की हो, जो आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को निशाना बनाता हो।
कोर्ट ने 2024 में इस कानून में हुए संशोधन का भी जिक्र किया, जिसमें अब ‘कोई भी व्यक्ति’ इस तरह के अपराध की शिकायत कर सकता है। कोर्ट ने इसे स्पष्ट करने वाला संशोधन माना और कहा कि यह पुराने मामलों पर भी लागू होता है।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि गैरकानूनी धर्म परिवर्तन न केवल व्यक्ति या उनके परिवार के खिलाफ अपराध है, बल्कि यह समाज और सामाजिक व्यवस्था के लिए भी खतरा है। खासकर तब, जब सामूहिक धर्म परिवर्तन धोखाधड़ी, जबरदस्ती, प्रलोभन या गलत तरीकों से किया जाए। कोर्ट ने कहा, “ऐसे मामलों में राज्य मूकदर्शक नहीं रह सकता।”
हाई कोर्ट के ऑर्डर की कॉपी का हिस्सा (फोटो साभार: lawbeat)
कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 25 का हवाला देते हुए कहा कि धार्मिक स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि कोई भी व्यक्ति जबरदस्ती, धोखे या लालच से धर्म परिवर्तन करा सकता है। कोर्ट ने कहा कि यह कानून सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए बनाया गया है, जो संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुरूप है।
हाई कोर्ट के ऑर्डर की कॉपी का हिस्सा (फोटो साभार: lawbeat)
कोर्ट ने जाँच रोकने की अपील भी की खारिज
FIR में कहा गया था कि दुर्गा यादव और अन्य लोग गरीब ग्रामीणों को मुफ्त इलाज और पैसे का लालच देकर धर्म परिवर्तन के लिए उकसा रहे थे। गवाहों के बयानों में भी इसकी पुष्टि हुई थी। कोर्ट ने माना कि FIR और गवाहों के बयान ऐसे अपराध को दर्शाते हैं, जिनकी जाँच जरूरी है। इसलिए कोर्ट ने जाँच में दखल देने से इनकार कर दिया। हालाँकि कोर्ट ने याचिकाकर्ता को जमानत का लाभ देते हुए कहा कि निचली अदालत उनके जमानत के नियम और शर्तें तय करेगी।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, “गैरकानूनी धर्म परिवर्तन न केवल व्यक्ति या उनके रिश्तेदारों के खिलाफ अपराध है, बल्कि यह समाज और सामुदायिक एकता के लिए भी बड़ा खतरा है। खासकर तब जब सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों का धर्म परिवर्तन गलत तरीकों से किया जाए। ऐसे में राज्य को चुप नहीं रहना चाहिए।”