नोट: मुझे हाल ही में ARC कॉन्फ्रेंस (अलायंस फॉर रिस्पॉन्सिबल सिटिजनशिप कॉन्फ्रेंस) के लिए निमंत्रण मिला था। यह कॉन्फ्रेंस जून 2026 में होने वाली है, जिसका मकसद कंजर्वेटिव्स आवाजों को एक साथ लाना है। इस कॉन्फ्रेंस की सलाहकार समिति में जॉर्डन पीटरसन, डगलस मरे, विवेक रामास्वामी जैसे कई बड़े नाम शामिल हैं। एक हिंदू होने के नाते, इस तरह के बड़े सम्मेलन में आमंत्रित होने वाली मैं पहली व्यक्ति थी, इसलिए मैं इसमें शामिल होने के लिए बहुत उत्साहित थी। लेकिन, मैंने अंत में इस निमंत्रण को ठुकराने का फैसला किया। मैंने ऑर्गनाइजर को जो जवाब भेजा, उसकी एक कॉपी नीचे हैं।
प्रिय ऑर्गनाइजर्स,
सबसे पहले, मैं आपको इस निमंत्रण के लिए दिल से धन्यवाद देना चाहती हूँ। मुझे अच्छी तरह से पता है कि आपकी इस इज्जतदार मीटिंग में, हिंदू कंजर्वेटिव का स्वागत शायद ही कभी होता है। इसलिए, मेरे लिए यह एक बहुत बड़ा सम्मान होगा कि मैं पहले हिंदुओं में से हूँ, जो यहाँ आकर अपने समुदाय के सामने मौजूद खतरों, हमारे साझे दुश्मनों और सभ्यता के दुश्मनों से लड़ने के लिए एक साथ आने पर खुलकर बात कर पाती। मैं अपने यहूदी दोस्त को भी धन्यवाद देना चाहती हूँ, जिसने मेरा नाम सुझाया। उनका मानना था (शायद अब भी) कि कोई भी कंजर्वेटिव गठबंधन हिंदुओं के बिना उतना ही अधूरा है, जितना यहूदियों के बिना। क्योंकि हम दोनों समुदाय धार्मिक कारणों से अत्याचार और दुश्मनी का सामना कर रहे हैं।
जब मेरे यहूदी दोस्त और मैंने ARC (द अलायंस फॉर रिस्पॉन्सिबल सिटिजनशिप) के बारे में बात की और उसने इनवाइट के लिए मेरा नाम रिकमेंड किया, तो मुझे थोड़ा शक हुआ।इसमें कोई संदेह नहीं कि अमेरिका में होने वाले कंजर्वेटिव कॉन्फ्रेंस (रूढ़िवादी सम्मेलन) मुख्य रूप से क्रिश्चियन रिवाइवल (ईसाई पुनरुत्थान) पर केंद्रित होते हैं। मैं निश्चित रूप से इसकी आलोचना नहीं करूँगी। हर समुदाय को अपनी संस्कृति, धर्म और सभ्यता को फिर से खड़ा करने का पूरा अधिकार है। लेकिन एक हिंदू होने के नाते, मैं इस बात को लेकर निश्चित नहीं थी कि ऐसे कॉन्फ्रेंस में मेरी भूमिका या मेरा रोल क्या होगा।
मेरे दोस्त ने मुझे याद दिलाया कि मैं हमेशा से कहती आई हूँ कि हिंदू अपनी सभ्यता की लड़ाई अकेले लड़ रहे हैं। मैं लंबे समय से मानती रही हूँ कि अगर हिंदुओं को जीत मिलती है, तो उसका जश्न हमें अकेले मनाना होगा और अगर हार मिलती है तो उसका बोझ भी हमें ही उठाना होगा। मैंने उनसे जॉर्डन पीटरसन के शर्मनाक तरीके से हिंदू देवी (माँ काली) के अपमान और डगलस मरे द्वारा भारत के औपनिवेशीकरण का गलत तरीके से बचाव करने का भी जिक्र किया। मैंने पूछा था कि ऐसे लोगों के साथ मेरी क्या बात कॉमन हो सकती है।
हमेशा से सकारात्मक सोच रखने वाले मेरे दोस्त ने कहा कि अब दुनिया ऐसी नहीं रही, जहाँ अत्याचार झेलने वाले समुदाय बिना सहयोगियों के अकेल बच सकें। उन्होंने कहा कि शायद ARC कॉन्फ्रेंस आम खतरों और दुश्मनों के खिलाफ सहयोगी ढूँढने का एक बेहतरीन मौका हो सकता है।
असल में, मेरा यह भी मानना है कि आगे बढ़ने का सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि हम एक तरह का ‘कॉमन मिनिमम प्रोग्राम’ बनाएँ। यानी, अपनी धार्मिक आस्थाओं में अंतर होने के बावजूद, हिंदू, ईसाई और यहूदी एक साथ आकर सभ्यता के साझे खतरों का सामना करें। हालाँकि, यह बात हमेशा मेरी समझ से बाहर है कि यह गठबंधन कैसा दिखेगा, क्योंकि हिंदू और ईसाइयों के बीच के धार्मिक मतभेद इतने गहरे हैं कि उन्हें दूर करना बहुत मुश्किल है।
जब राम माधव ने जुलाई 2024 में ‘नेशनल कंजर्वेटिज़्म कॉन्फ्रेंस’ में भाषण दिया तो उन्होंने वहाँ एकजुटता दिखाई। राम माधव ने कहा था कि ग्लोबल लेफ्ट के खिलाफ क्रिश्चियन कंजर्वेटिव (ईसाई रूढ़िवादियों) की लड़ाई में एक अरब भारतीय उनके साथ कँधे से कँधा मिलाकर खड़े रहेंगे। राम माधव ने यहाँ तक कहा था, “इस लड़ाई में हम सबसे आगे रह सकते हैं।” इतनी मदद की पेशकश (ऑलिव ब्राँच) के बावजूद, क्रिश्चियन कंजर्वेटिव (ईसाई रूढ़िवादियों) ने ही उन्हें X ( पहले ट्विटर) पर उनके हिंदू धर्म के कारण अपमानित किया, मजाक उड़ाया और गालियाँ दीं।
मुझे पता था कि अगर मैं ARC कॉन्फ्रेंस में गई होती तो मेरे साथ भी वैसा ही अपमानजनक व्यवहार हो सकता था। लेकिन इस बात से मुझे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। ऑनलाइन नफरत तो हर उस व्यक्ति को झेलनी पड़ती है जो वामपंथी विचारों का नहीं होता, चाहे वह कहीं का भी हो। इन सब कड़वी सच्चाइयों के बावजूद, मैंने सोचा कि ARC कॉन्फ्रेंस मेरे समुदाय के लिए फायदेमंद हो सकता है। क्योंकि, राम माधव के खिलाफ जो नस्लीय हमले हुए थे, वह ज्यादातर ऐसे लोगों की तरफ से थे जिन्हें मामूली मानकर खारिज किया जा सकता है। मुझे लगा कि ये ऐसे रैंडम सोशल मीडिया अकाउंट्स हैं जिनमें नीति या गंभीर चर्चा को प्रभावित करने की ताकत नहीं है।
सोशल मीडिया पर जो नस्लीय बातें हो रही थीं, उनका नीतियों या बातचीत के नियमों पर कोई असर नहीं पड़ा, इस बात को थोड़ा और बल तब मिला जब डोनाल्ड ट्रम्प ने श्रीराम कृष्णन को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) पर व्हाइट हाउस का सीनियर पॉलिसी एडवाइजर चुना। इसके बाद, जब MAGA समर्थकों ने श्रीराम कृष्णन के खिलाफ बहुत सारे नस्लीय दुर्व्यवहार वाले मैसेज छोड़े, तो एलन मस्क, डेविड सैक्स और ऐसे ही अन्य लोगों ने उनका खुलकर बचाव किया।
तभी मैंने सोचा कि शायद मैं बहुत ज्यादा निराशावादी हो रही हूँ। हो सकता है कि हम एक साझा, सीमित सहमति पर पहुँच सकें और मेरे समुदाय को इस तरह के गठबंधन से फायदा मिल सके। यहाँ तक कि बढ़ते हुए नस्लीय हमलों और टिप्पणियों के बावजूद, मुझे लगा कि यह सम्मेलन मुझे इस भेदभाव को दूर करने का मौका देगा।
श्रीराम कृष्णन के मामले में जो विरोध या नाराजगी थोड़ी-बहुत दिखाई दी थी, वह पूरी तरह से गायब थी जब डोनाल्ड ट्रम्प की H1B वीजा नीतियों पर बहस छिड़ने के बाद भारत-विरोधी और हिंदू-विरोधी टिप्पणियों की बाढ़ आ गई। दरअसल, MAGA आंदोलन या एंटी-वोक आंदोलन के जो भी बड़े बुद्धिजीवी नेता थे, वे या तो अपनी चुप्पी के जरिए उन टिप्पणियों से सहमत दिखे या फिर वे विरोध में अपनी आवाज उठाने से बहुत डरे हुए लगे।
मैंने अपनी जिंदगी का ज्यादातर समय हिंदुओं के अधिकारों की वकालत करने और धर्म के नाम पर हिंदुओं के खिलाफ होने वाले नफरती अपराधों का हिसाब रखने में बिताया है। इसलिए, मैं उन हिंदू-विरोधी टिप्पणियों को नजरअंदाज नहीं कर सकती थी, जो किसी मामूली व्हाइट सुप्रीमेसिस्ट (श्वेत श्रेष्ठतावादी) ने नहीं, बल्कि संयुक्त राज्य अमेरिका के उपराष्ट्रपति ने खुद की थीं।
जब जेडी वेंस ने अमरीका को बताया कि उन्हें उम्मीद है कि उनकी पत्नी ऊषा वेंस ईसाई धर्म अपना लेंगी, तो उन्होंने एक तरह से एक अरब से ज्यादा हिंदुओं को यह संदेश दिया कि उनका धर्म (हिंदू धर्म) काफी अच्छा नहीं है। इस बात से उनके समर्थकों द्वारा की गई हिंदू-विरोधी टिप्पणियों को मंजूरी मिल गई, जिसमें उन्होंने हिंदू धर्म को ‘झूठा धर्म’ कहा था और हमारे देवी-देवताओं को राक्षस बताया था।
अब, मैं यह पक्के तौर पर नहीं कह सकती कि जेडी वेंस सच में क्या मानते हैं, लेकिन अगर यह उनकी सच्ची राय नहीं थी, तो यह बात साफ थी कि कम से कम वह कट्टरपंथी लोगों को नाराज करने से बहुत डरे हुए थे। एक एथनिक इंडियन और अभ्यास करने वाली हिंदू महिला से शादी करने के बावजूद, वेंस ने दिवाली पर हिंदुओं को शुभकामनाएँ देने से परहेज किया (जो साफ तौर पर सोच-समझकर लिया गया फैसला था)। बल्कि उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह उम्मीद जताई कि उनकी पत्नी ईसाई मजहब अपना लेंगी। अगर और कुछ नहीं, तो जेडी वेंस का यह बयान यह साबित करता है कि अब अमेरिका में नस्लवादी कट्टरपंथी लोग ही मुख्यधारा यानि मेनस्ट्रीम बन गए हैं और वे ही तय कर रहे हैं कि नेता कैसा व्यवहार करें और वे किसका समर्थन करें।
इस बात की तुलना भारत और भारतीय लीडरशिप से करनी चाहिए, जिन्हें हिंदू राष्ट्रवादी माना जाता है। भारत में हिंदुओं की एक बड़ी आबादी मानती है कि भारत को एक हिंदू राष्ट्र होना चाहिए। लेकिन यह सोच भी यहाँ के लीडरशिप को ईसाई या मुस्लिम समुदाय तक पहुँचने और उनसे बात करने से नहीं रोकती है, क्योंकि मौजूदा लीडरशिप और उनकी विचारधारा की नींव यानी RSS मानती है कि इस जमीन पर पैदा हुआ कोई भी व्यक्ति, चाहे उसके धार्मिक विचार अलग हों, उसे एक भाई की तरह देखा जाना चाहिए।
असल में, USCIRF अक्सर गलत डेटा का हवाला देकर यह दावा करता है कि भारत में ईसाइयों को सताया जा रहा है। लेकिन हकीकत में सच्चाई इसके बिल्कुल उलट है। ऐसे सैकड़ों मामले और हजारों हिंदू हैं, जिन्हें उनके अपने ही देश में ईसाइयों द्वारा सताया गया है। इन मामलों को हिंदूफोबिया ट्रैकर पर बारीकी से दर्ज किया गया है, जो हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों का एक डेटाबेस है। इसके बावजूद, भारत सरकार, जिसे अमेरिका के कुछ लोग हिंदू राष्ट्रवादी बताकर बदनाम करते हैं, अल्पसंख्यकों के डर को दूर करने का ईमानदारी से प्रयास करती है।
सच कहूँ तो, मैं उन हिंदुओं में से हूँ जो मानते हैं कि भारत हिंदुओं की सभ्यता, सांस्कृतिक और धार्मिक जमीन है। और अगर मैं यह कहती हूँ, तो मुझे यह भी रिकॉर्ड में रखना होगा कि एक ऐसा व्यक्ति होने के नाते जो भारत को हिंदू भूमि मानता है, मुझे इस बात से कोई ऐतराज नहीं है कि ईसाई लोग अमेरिका को ईसाई देश समझते हैं। हालाँकि, हिंदुओं के लिए, भारत का हिंदू देश होने का मतलब ईसाइयों को बाहर निकालना नहीं है, बल्कि हिंदुओं के धार्मिक और सांस्कृतिक अधिकारों को बचाना है। भारत ही वह अकेली धरती है जिसने दुनिया भर से सताए गए समुदायों ‘यहूदियों से लेकर पारसियों, ईसाइयों और यहाँ तक कि मुस्लिमों तक’ सबको स्वीकार किया है और उनसे कभी भी अपना मजहब छोड़ने की उम्मीद नहीं की।
ईसाइयों के खिलाफ जो भी विरोध होता है, वह हिंदुओं के धार्मिक अधिकारों के उल्लंघन तक ही सीमित है। दूसरे शब्दों में, हिंदू ईसाइयों का विरोध तभी करते हैं जब वे जबरदस्ती हिंदुओं को उनके धर्म से अलग करने और उन पर अपने धार्मिक विश्वास थोपने की कोशिश करते हैं। यह विरोध धार्मिक मतभेदों की वजह से नहीं है। असल में, हिंदू शायद दुनिया के एकमात्र ऐसे लोग हैं जो मतभेदों ‘धार्मिक हों या कोई और’ को एक साथ रहने का हिस्सा मानते हैं।
जहाँ एक तरफ हिंदुओं के सिद्धांत साफ हैं, वहीं अब ईसाइयों को यह तय करना होगा कि उनका ‘ईसाई राष्ट्र’ कैसा दिखेगा। इस बारे में राय देना मेरा काम नहीं है। लेकिन अभी यह साफ दिखाई देता है कि अमेरिका में कट्टरपंथी नस्लवादी लोग ही लीडरशिप को कंट्रोल कर रहे हैं। वे कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए अपने परिवार के लोगों की भी बलि चढ़ा देंगे।
श्रीराम कृष्णन पर हुए नस्लीय हमलों और उनकी जातीय-धार्मिक पहचान की निंदा करने के बाद एलन मस्क और अन्य लोगों से एक वैश्विक गैर-वामपंथी गठबंधन की जो थोड़ी-बहुत उम्मीद बची थी, वह अब पूरी तरह खत्म हो चुकी है।
जब खुद लीडरशिप ही एकमत या डरी हुई दिखे, तो ऐसे इवेंट में जाने से कोई फायदा नहीं होगा।
जो कुछ हाल ही में हुआ, उसका बचाव करने के लिए यह तर्क दिया जा सकता है कि कैथोलिक जेडी वेंस के लिए यह उम्मीद करना स्वाभाविक है कि उनकी पत्नी ईसाई मजहब अपना लें। क्योंकि ईसाइयों का मानना है कि यही मुक्ति का एकमात्र रास्ता है। और मुझे ऊषा वेंस की तरफ से बोलने का कोई अधिकार नहीं है। सच कहूँ तो इससे मुझे कोई खास फर्क नहीं पड़ता है कि ऊषा वेंस क्या फैसला करती हैं। मगर, संयुक्त राज्य अमेरिका के उपराष्ट्रपति जो कुछ भी एक अरब लोगों के धर्म (हिंदू धर्म) के बारे में कहते हैं, वह बहुत मायने रखता है। क्योंकि उनका बयान यह तय करता है कि पश्चिमी दुनिया या कम से कम उसका एक बड़ा हिस्सा, उस धर्म को मानने वालों के साथ कैसे पेश आता है।
जब जेडी वेंस ने कहा कि उनकी पत्नी ज्यादा धार्मिक नहीं हैं तो यह बात ऊषा वेंस के पहले के बयान के खिलाफ थी, जिसमें ऊषा वेंस ने खुद को एक धार्मिक हिंदू बताया था। ऐसा कहकर, उन्होंने एक तरह से हिंदू धर्म को पूरी तरह से नकार दिया। उन्होंने मूल रूप से यह कहा कि ऊषा वेंस ‘धर्महीन’ हैं, इसलिए नहीं कि वह नास्तिक हैं, बल्कि इसलिए कि वह कैथोलिक धर्म को नहीं मानती हैं। जब उन्होंने यह माना कि उनके बच्चों को कैथोलिक तरीके से पाला जा रहा है, जबकि कुछ ही महीने पहले उन्होंने कहा था कि उनके बच्चे हिंदू रीति-रिवाजों के साथ दोनों धर्मों को मानते हैं, तो उन्होंने हिंदू धर्म की वैधता को ही खत्म कर दिया। यह सब उन्होंने शायद इसलिए किया ताकि वह अपने कट्टरपंथी वोट बैंक को खुश कर सकें।
यहाँ मैं अपनी बात फिर दोहराना चाहूँगी: मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि ऊषा वेंस या उनके बच्चे किस धर्म को मानते हैं। उनकी शादी कोई ग्लोबल चिंता की बात नहीं है।
लेकिन, अंतर्राष्ट्रीय चिंता का विषय यह है कि उनके बयानों का हिंदुओं के लिए क्या मतलब है, और यह कैसे उनके अमानवीकरण और उनके धर्म को गलत साबित करेंगे। वेंस का बयान सिर्फ उनकी पत्नी के बारे में नहीं था। इसका सीधा मतलब यह था कि हिंदू धर्म नीचा है और इसने हिंदू संस्कृति को मिटाने और स्टीरियोटाइपिंग (रूढ़िवादिता) को और बढ़ाया है।
यह नस्लीय और धार्मिक नफरत का ही नतीजा है कि हिंदुओं से यह उम्मीद की जाती है कि वे अपनी धार्मिक पहचान छोड़ दें और अपनी सांस्कृतिक पहचान को कम कर दें ताकि वे ‘मिल-जुल’ सकें। जबकि हिंदू न तो धर्म परिवर्तन करवाते हैं और न ही दूसरों पर अपने धार्मिक रीति-रिवाज थोपते हैं, वे किसी भी समाज के अच्छे सदस्य होते हैं। धार्मिक पहचान छोड़ने का दबाव इतना ज्यादा है कि अमेरिका में ज्यादातर हिंदू खुद को मुश्किल से ही धार्मिक बताते हैं। वे दावा करते हैं कि वे ‘आध्यात्मिक’ हैं या विवेक रामास्वामी की तरह यह दावा करते हैं कि ईसाई मूल्य और हिंदू मूल्य एक जैसे ही हैं।
दरअसल, भेदभाव और अपमान से बचने के लिए, जिन हिंदुओं के पास राजनीतिक ताकत है, उन्हें भी ईसाई दबदबे वालों के सामने झुकना पड़ता है। वे ऐसा इसलिए करते हैं ताकि अपनी विशेष हिंदू पहचान छोड़कर यह दावा कर सकें कि वे ईसाई नहीं, तो कम से कम ईसाइयों के समर्थक तो हैं ही।
जाहिर है, मैं ऐसे हिंदुओं को भी उतना ही गलत मानती हूँ जितना कि मैं ईसाई कट्टरपंथियों को जिम्मेदार ठहराती हूँ। हिंदुओं की व्हाइट सुप्रीमेसिस्ट लोगों से घुलने-मिलने और थोड़ी-सी स्वीकृति पाने की चाहत, बाकी हिंदुओं के अपमान में उतना ही योगदान देती है। लेकिन जब संयुक्त राज्य अमेरिका के उपराष्ट्रपति खुद अपनी पत्नी के धर्म का बचाव करने के लिए खड़े नहीं हो सकते, तो मुझे बाकी ईसाई कंजर्वेटिव से बहुत कम उम्मीद है, भले ही वे आम दुश्मनों से लड़ने के लिए एक छोटा-मोटा गठबंधन क्यों न बना लें।
ईमानदारी से कहूँ तो, मेरी दिलचस्पी सिर्फ हिंदुओं को सुरक्षित रखने और उनका बचाव करने में है। अगर कोई भी बड़ा गैर-वामपंथी वैश्विक गठबंधन इस मकसद को पूरा नहीं करता, तो मेरे लिए उसका कोई मतलब नहीं है। मुझे इस बात की बिलकुल परवाह नहीं है कि वामपंथी या ईसाई कंजर्वेटिव मुझे सही मानते हैं या नहीं।
मेरा मानना है कि वामपंथ और शायद इस्लामी कट्टरपंथ के खिलाफ एक वैश्विक गठबंधन मेरे समुदाय के लिए फायदेमंद होगा। लेकिन शर्त यह है कि ऐसा कोई भी गठबंधन बराबरी के आधार पर होना चाहिए। मैं न कभी ऐसी थी और न कभी होऊँगी, कि किसी गठबंधन के लिए मैं अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को कम कर दूँ और न ही मैं कभी उन लोगों के आगे झुकूँगी जो खुद को हमसे श्रेष्ठ समझते हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि यह पत्र मेरे समर्थकों और पाठकों के बीच बहस छेड़ देगा। वे पूछेंगे, “क्या मुझे यह सब वहाँ कॉन्फ्रेंस में जाकर नहीं कहना चाहिए था?”, “वहाँ न जाकर, दूर से अपमान झेलने से बेहतर नहीं था कि मैं वहाँ मौजूद रहती?”, “क्या मेरे इस पत्र से कुछ बदलेगा? और अगर नहीं बदलेगा, तो क्यों न मैं वहाँ जाती और एक मौका लेती। भले ही वह बहुत छोटा क्यों न होता, बाकी कंजर्वेटिव लोगों को यह समझाने का कि हिंदू सहयोगी होने के लिए बने हैं।”
मुझे अब पहले से कहीं ज्यादा डर है कि एक वैश्विक गैर-वामपंथी गठबंधन शायद बन ही न पाए। धार्मिक रूप से ईसाई हमेशा हिंदुओं को उनके धर्म से दूर करने की कोशिश करेंगे। भारत में, ऐसे हजारों मामले हैं जहाँ ईसाइयों ने हिंदुओं पर जुल्म किया है, उन्हें जबरदस्ती या धमकाकर ईसाई मजहब अपनाने के लिए मजबूर किया है। राजनीतिक रूप से, ‘राइट’ (दक्षिणपंथी) हमेशा अपने स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करेगा, जबकि वामपंथ को वैश्विक समर्थन मिलता है। हिंदू अपने लोगों के धर्म और अपने पूर्वजों की जमीन की धार्मिक, सांस्कृतिक और पारंपरिक सुरक्षा पर ध्यान देना चाहेंगे। इसके विपरीत, ईसाई लोग अपनी संस्कृति और मजहब को फिर से खड़ा करने के अलावा, धार्मिक रूप से हिंदुओं और उनके धर्म को मिटाने में भी लगे रहेंगे।
मुझे यकीन है कि ARC कॉन्फ्रेंस या दूसरे कंजर्वेटिव कॉन्फ्रेंस को कई और ऐसे हिंदू मिल जाएँगे जो झुकने को तैयार होंगे और जो अपने ही अत्याचार और अपमान के लिए हिंदुओं को दोषी ठहराएँगे। मैं उनमें से एक नहीं बनना चाहती।
मेरा मानना है कि इस वक्त क्रिश्चियन कंजर्वेटिव्स को ही अपना घर ठीक करने की जरूरत है, क्योंकि फिलहाल उनका दुनिया को दिया गया संदेश साफ है कि क्रिश्चियन कंजर्वेटिव्स (ईसाई रूढ़िवादिता) या तो कट्टरपंथ की गुलाम है या फिर कट्टरपंथ से अलग नहीं है। जो नस्लवाद और पुरानी धार्मिक मान्यताओं में गहराई तक समाई हुई है जो हिंदुओं के अस्तित्व से ही नफरत करती है।
मैं उम्मीद करती हूँ कि भविष्य में एक ऐसा समय आएगा जब क्रिश्चियन कंजर्वेटिव्स (ईसाई रूढ़िवादी) यह महसूस करेंगे कि जिस समय वे ‘काफिरों’ को धर्म बदलने में अपनी ताकत लगा रहे थे, उसी समय उनके अपने देश और उनकी पहचान को आम दुश्मनों द्वारा चुराया जा रहा था। मैं उम्मीद करती हूँ कि एक दिन, एक आम गठबंधन बनाने के लिए हिंदुओं को अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को कम करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जब तक ऐसा नहीं होता, मुझे यह कॉन्फ्रेंस अटेंड करने में असहजता महसूस होगी, हालाँकि मैं दिए गए निमंत्रण के लिए दिल से आभारी हूँ।
मैं जाहिर तौर पर जेडी वेंस की हिंदू-विरोधी सोच के लिए ARC कॉन्फ्रेंस को दोष नहीं दे रही हूँ। लेकिन कंजर्वेटिव्स की तरफ से किसी भी निंदा के न होने और इसके उलट बड़े पैमाने पर सहमति न होने के कारण, मेरा मानना है कि यह क्रिश्चियन कंजर्वेटिव (ईसाई रूढ़िवादी) सभा ऐसी नहीं है जहाँ मुझे जाने की जरूरत महसूस हो।







