देश ‘एकता दिवस’ मना रहा है। विभिन्न स्थानों और राज्यों में सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती पर विशेष समारोह, कार्यक्रम और उत्सव शुरू हो चुके हैं। अखंड भारत को एक सूत्र में पिरोकर देश को गौरवशाली स्थान दिलाने वाले सरदार पटेल की दृढ़ इच्छाशक्ति और देशभक्ति को आज भी लोग याद कर रहे हैं और इसके साथ ही याद कर रहे हैं भावनगर स्टेट और उनके शासक महाराजा राओल साहब श्री कृष्ण कुमार सिंह जी गोहिल को। इसका एकमात्र कारण यह है कि भावनगर अखंड भारत के स्वप्न की पहली सीढ़ी बना था।
जब सरदार पटेल ने प्रयास शुरू किए, तब भावनगर एकमात्र ऐसी रियासत थी, जिसने स्वयं आगे आकर अखंड भारत में विलय होना स्वीकार किया। इसका परिणाम यह हुआ कि भावनगर को देखकर अन्य रियासतें भी अखंड भारत में शामिल होती गईं। 1947 की स्वतंत्रता के बाद बिखरे हुए और खंड-खंड भारत को एक सूत्र में बाँधने के सरदार पटेल के अभियान में भावनगर ने पहला और अनूठा कदम उठाया था और वहीं से रियासतों के विलीनीकरण का अभियान शुरू हुआ था।
भावनगर के तत्कालीन शासक महाराजा कृष्ण कुमार सिंह जी गोहिल ने भारतीय संघ में भावनगर का दान देकर एक महान उदाहरण प्रस्तुत किया था। इस लेख में हम महाराजा साहब और सरदार पटेल के बीच हुई बातचीत पर चर्चा करेंगे। सरदार पटेल की जयंती पर उनके भारत को एक करने के अभियान में भावनगर राज्य ने किस तरह सिंहफाल (बड़ा योगदान) दिया था और जिसके परिणामस्वरूप यह अभियान शुरू हुआ, इन सभी मुद्दों पर हम विशेष चर्चा करेंगे।
1939 की प्रजा परिषद और सरदार पटेल से महाराजा की पहली मुलाकात
भावनगर राज्य में भले ही राजशाही थी, लेकिन इसमें प्रजा परिषद, सुनवाई, कोर्ट और अन्य महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक तत्व भी शामिल थे। आम लोगों को भी कुछ अधिकार दिए जाते थे, और महाराजा कृष्ण कुमार सिंह जी स्वयं भी एक स्वतंत्र और उदार स्वभाव के व्यक्ति थे। उनका जन्म 19 मई, 1912 को भावनगर में हुआ था। अपने पिता महाराजा भाव सिंह जी द्वितीय के निधन के बाद, केवल सात साल की छोटी उम्र में उन्हें भावनगर की राजगद्दी सौंप दी गई थी। हालाँकि, 1931 तक शासन दीवान के मार्गदर्शन में चलाया गया था।
कृष्ण कुमार सिंह जी के शासनकाल में भावनगर, काठियावाड़ का मुख्य व्यापारिक केंद्र बन गया था, जहाँ समुद्री व्यापार और औद्योगिक विकास को बढ़ावा दिया जाता था। 1938 में उन्हें कई अंतर्राष्ट्रीय सम्मान और KCSI का गौरव भी मिला था, फिर भी उनका हृदय हमेशा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ा हुआ था।
महाराजा कृष्ण कुमार सिंह जी और सरदार पटेल की पहली मुलाकात 1939 में हुई थी। महाराजा ने भावनगर में प्रजा परिषद का आयोजन किया था और सरदार पटेल को इसमें आमंत्रित किया था। इस परिषद में, सरदार पटेल ने प्रजातंत्र (लोकतंत्र), राज्य के विकास और राष्ट्रीय एकता पर भाषण दिया था, जिससे महाराजा के मन में उनके प्रति बहुत सम्मान पैदा हुआ। इसी बैठक में, भविष्य में होने वाले राज्यों के एकीकरण की नींव पड़ गई थी।
महाराजा साहब ने बाद में कहा था, “सरदार के शब्दों में एकता की इतनी ऊँची शक्ति थी, जिसने मेरे हृदय को छू लिया।” इसी गहरे विश्वास के कारण ही 1947 में रियासतों के एकीकरण की प्रक्रिया आसान बन पाई थी।
1947 की स्थिति: खंड-खंड भारत को ‘अखंड’ बनाने की बड़ी चुनौती
1947 में देश को आजादी तो मिल गई, लेकिन उस समय भारत में 565 रियासतें थीं, जिनका क्षेत्रफल देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग 48% था। इन रियासतों को तीन विकल्प दिए गए थे। पहला भारत में शामिल होना, दूसरा पाकिस्तान में शामिल होना और तीसरा स्वतंत्र बने रहना।
गृह मंत्री के रूप में, सरदार पटेल ने ‘एक्सेशन इंस्ट्रूमेंट’ (विलय पत्र) तैयार करके रियासतों को भारतीय संघ में शामिल होने का बुलावा दिया। इस दस्तावेज के जरिए रियासतों से कहा गया था कि वे रक्षा, विदेश नीति और संचार जैसे विषयों पर भारत संघ को अधिकार दे दें। बदले में, उन्हें अपने आंतरिक शासन और विरासत की सुरक्षा की गारंटी दी गई थी।
स्थिति यह थी कि कई रियासतें स्वतंत्र रहना चाहती थीं, जिसके कारण भारत को एकजुट करना बहुत मुश्किल काम बन गया था। यह सोचा गया था कि यदि कोई एक रियासत भारतीय संघ में शामिल हो जाती है, तो बाकी रियासतें भी उसे देखकर जुड़ सकती हैं।
इस अनिश्चितता के बीच, महाराजा कृष्ण कुमार सिंह जी ने सरदार पटेल के आह्वान को सबसे पहले स्वीकार किया। उन्होंने स्वेच्छा से, एक तुलसी पत्र पर 1,800 गाँवों (पादर) सहित अपना पूरा राज्य देश को सौंप दिया। इस ऐतिहासिक अवसर पर उन्होंने कहा था कि, “भावनगर की जनता और उसकी विरासत के लिए भारतीय संघ में शामिल होना ही एकमात्र सही विकल्प है।”
गाँधी से मुलाकात और सरदार की कूटनीति
महाराजा कृष्ण कुमार सिंह जी और सरदार पटेल के बीच मुख्य बातचीत दिसंबर 1947 में दिल्ली में हुई थी। उस समय महाराजा की उम्र केवल 35 वर्ष थी। उन्होंने 17 दिसंबर, 1947 को बिड़ला हाउस में महात्मा गाँधी से मुलाकात की और भारत में विलय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की। मनुबहन गाँधी ने अपनी पुस्तक ‘दिल्ली में गाँधीजी’ (भाग-1) में महाराजा की गाँधी से मुलाकात का वर्णन किया है।
इस वर्णन के अनुसार, समय निकट जानकर गाँधी जी ने मनुबहन को बाहर कार के पास जाकर महाराजा को सम्मानपूर्वक अंदर लाने के लिए कहा था। महाराजा ने गाँधी से अकेले में मुलाकात कर बातचीत की। उन्होंने गाँधी जी को नम्रतापूर्वक बताया, “मैं अपना राज्य देश के चरणों में सौंपता हूँ। मेरे सालाना पेंशन (सालियाना), निजी संपत्ति आदि के बारे में जो भी फैसला होगा, मैं उसे स्वीकार करूँगा।”
गाँधी जी महाराजा की इस उदार और महान पेशकश से बहुत प्रसन्न हुए। फिर भी उन्होंने पूछा, “क्या आपने अपनी महारानी और भाइयों से पूछा है?” महाराजा का जवाब था, “मेरे इस फैसले में उनका मत भी शामिल है। जब पूरा का पूरा हाथी ही जा रहा है, तो उस पर रखी अंबारी (हौदा) को रखने का कोई अर्थ नहीं है।”
गाँधी जी ने उस समय कहा था, “भावनगर महाराजा का निर्णय भारत की एकता के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।” इस दौरान उन्होंने महाराजा को सरदार पटेल से मुलाकात करने और इस दिशा में आगे बढ़ने की सलाह दी। इसके बाद, महाराजा कृष्ण कुमार सिंह जी और सरदार पटेल की एक बैठक हुई और पहली बार किसी रियासत को भारत संघ में जोड़ने पर विस्तार से विचार किया गया।
‘प्रजावत्सल राजवी’ (प्रजा प्रेमी राजा) नाम से कृष्ण कुमार सिंह जी की जीवनी लिखने वाले तथा भावनगर की शामलदास कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल डॉ गंभीर सिंह गोहिल ने भी इस घटना का उल्लेख किया है। सरदार पटेल ने महाराजा से व्यक्तिगत रूप से कहा था, “रियासतों का एकीकरण केवल राजनीतिक मामला नहीं है, बल्कि इसमें जनता का कल्याण भी छिपा हुआ है। आप जैसे प्रगतिशील शासकों के सहयोग से ही भारत विश्व की महानतम लोकतंत्र बन सकता है।” महाराजा ने जवाब में भावनगर राज्य के व्यापारियों, जनता और उसकी आर्थिक स्थिरता को लेकर अपनी चिंता व्यक्त की थी।
इस दौरान सरदार पटेल ने उन्हें भरोसा दिलाया था कि सभी बातों का ध्यान रखा जाएगा। उन्होंने कहा था, “भावनगर को वार्षिक पेंशन, आंतरिक शासन की स्वायत्तता (आजादी) और व्यापारिक मार्गों की सुरक्षा दी जाएगी। आपकी पॉलिटेक्निक संस्थानों को मज़बूत बनाने में केंद्र मदद करेगा।” यह बातचीत दबाव पर नहीं, बल्कि विश्वास पर आधारित थी।
इसके बाद, वी पी मेनन के माध्यम से इस समझौते को अंतिम रूप दिया गया। उस समझौते में भावनगर महाराजा को संबोधित करते हुए धन्यवाद व्यक्त किया गया और कहा गया, “यह विलय भावनगर को और मजबूत बनाएगा और महाराजा साहब का भावनगर की प्रजा के साथ उनका लगाव और भावनाएँ अखंड तथा बरकरार रहेंगी।”
पहला विलय और उसका परिणाम: अनेक रियासतें हुईं तैयार
इस समझौते का तुरंत परिणाम 15 जनवरी, 1948 को सामने आया, जब सरदार पटेल भावनगर पहुँचे। एक विशेष समारोह में, महाराजा कृष्ण कुमार सिंह जी ने सार्वजनिक रूप से भावनगर की जनता को ‘जिम्मेदार लोकतंत्र’ देने की आधिकारिक घोषणा की। इसी दौरान उन्होंने शासन-प्रशासन जनता के प्रतिनिधियों को सौंप दिया था और एक्सेशन इंस्ट्रूमेंट (विलय पत्र) पर हस्ताक्षर कर दिए थे।
इसके साथ ही, भावनगर भारत की पहली ऐसी रियासत बन गई, जो पूरी तरह से भारतीय संघ में विलीन हो गई। 15 फरवरी, 1948 को भावनगर सौराष्ट्र राज्य में शामिल हो गया, जिससे सौराष्ट्र की अन्य 222 रियासतों को भी प्रेरणा मिली।
इस कदम का असर इतना गहरा था कि इससे जूनागढ़, पोरबंदर और उनके जैसी अन्य रियासतों तथा वहाँ की जनता को यह संदेश मिला कि एकता ही प्रगति का एकमात्र रास्ता है। सरदार पटेल और भावनगर महाराजा के साझा प्रयासों से विलीनीकरण की प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ने लगी।
गाँधी जी भी अन्य रियासतों को भावनगर का उदाहरण देते थे। मनुबहन की पुस्तक में वर्णन है कि गाँधी जी उन्हें मिलने आए अन्य राजाओं से कहते थे, “आप पूछते थे न कि हमें अब कैसे व्यवहार करना चाहिए? तो आप भावनगर के महाराजा कृष्ण कुमार सिंह जी का उदाहरण लें और उन्होंने जो रास्ता अपनाया, वैसा आप भी अपनाएँ।”
भावनगर राज्य से प्रेरणा लेकर देश की अन्य रियासतें भी भारत में विलय होने के लिए तैयार होने लगीं, और सरदार पटेल ने विलीनीकरण की प्रक्रिया को तेजी से आगे बढ़ाया। भावनगर का विलीनीकरण सरदार पटेल की रणनीति का पहला विजयी कदम था। उन्होंने कूटनीति और विश्वास के आधार पर रियासतों को एक किया। सरदार पटेल की जयंती पर यह इतिहास हमें याद दिलाता है कि एकता केवल विश्वास और समर्पण से ही बनती है।
सरदार पटेल की जयंती पर भावनगर और भावनगर के महाराजा साहब को याद करने का एकमात्र कारण यह है कि उन्होंने भारत के विलीनीकरण के लिए पहला और निर्णायक कदम भरा था और सरदार पटेल के अखंड भारत के स्वप्न रूपी यज्ञ में प्रथम आहुति दी थी।







