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21 साल की उम्र में परमवीर चक्र, बलिदान के बाद भी जिसकी दुश्मन करता है तारीफ: जानें अरुण खेत्रपाल की कहानी, जिसने आमने-सामने की लड़ाई में मार गिराए 10 अमेरिकी पैंटन टैंक

अरुण खेत्रपाल एक भारतीय सेना अधिकारी थे जिन्हें 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में उनकी वीरता के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। उनकी जीवनी पर बनी फिल्म इक्कीस अब सिनेमाघरों में आने के लिए तैयार है। 21 साल में अपना सर्वोच्च बलिदान देने वाले महानायक को देश याद कर रहा है।

सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल का जन्म 14 अक्टूबर 1950 में पुणे में हुआ था। उनका परिवार सेना से जुड़ा रहा है। वे ब्रिगेडियर एम.एल. खेत्रपाल और श्रीमती माहेश्वरी खेत्रपाल के दो पुत्रों में बड़े थे।

Second Lieutenant Arun Khetarpal, one of India’s most valiant heroes, made the supreme sacrifice during the 1971 Indo-Pak War. Leading from the front, he fearlessly assaulted enemy positions and continued fighting despite his tank got hit. For his unmatched courage and… pic.twitter.com/wQI7LHAHR9— Ministry of Defence, Government of India (@SpokespersonMoD) October 14, 2025

अरुण के परदादा सिख खालसा रेजिमेंट के हिस्से के रूप में अंग्रेजों की सेना में थे। उनके दादा प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश इंडियन आर्मी में थे। बड़े होते हुए अरुण ने अपने पिता से अपने परिवार की वीरता की कहानियाँ सुनी थी।

अरुण खेत्रपाल का परिवार (फोटो साभार- Honourpoint)

अरुण ने हिमाचल प्रदेश के कसौली की पहाड़ियों में स्थित लॉरेंस स्कूल, सनावर से अपनी स्कूली शिक्षा प्राप्त की। वे पढ़ाई और खेल दोनों में ही तेज थे। उन्होंने स्कूल के आदर्श वाक्य ‘कभी हार न मानो’ को अपने जीवन में आत्मसात कर लिया था। बचपन से ही मजबूत इच्छाशक्ति वाले अरुण के व्यक्तित्व की गूँज युद्ध के मैदान में भी दिखाई दी।

अरुण खेत्रपाल के सेना में शामिल होने की कहानी

अरुण ने अपने पिता और दादा-परदादा की तरह सेना में भर्ती होकर अपने बचपन के सपने को साकार किया। जून 1967 में उन्होंने राष्ट्रीय रक्षा अकादमी यानी एनडीए ज्वाइन की। जहाँ वे फॉक्सट्रॉट स्क्वाड्रन के 38वें कोर्स में शामिल हुए। इस कोर्स के दौरान उनके नेतृत्व कौशल निखर कर सामने आए और वे उस बैच के स्क्वाड्रन कैडेट कैप्टन बने।

एनडीए से पास होने के बाद उन्होंने इंडियन मिलिट्री एकेडमी, देहरादून ज्वाइन किया।13 जून 1971 को भारतीय सेना में एक अधिकारी के रूप में खेत्रपाल को कमीशन मिला। इस दौरान उनके दोनों कँधों पर एक-एक स्टार लगाया गया। उन्हें बख्तरबंद कोर की 17वीं पूना हॉर्स रेजिमेंट में तैनात किया गया। अरुण अब एक घुड़सवार सेना इकाई में सेकंड लेफ्टिनेंट थे, जो अपने वीरतापूर्ण इतिहास और उपलब्धियों के लिए जानी जाती थी। पूना हॉर्स भारत की सबसे प्रतिष्ठित बख्तरबंद रेजिमेंटों में से एक थी और है।

युवा अधिकारी को कमीशन मिलने के छह महीने के भीतर ही भारतीय उपमहाद्वीप को युद्ध के साये ने घेर लिया। दिसंबर 1971 की शुरुआत में, पाकिस्तान के साथ दुश्मनी युद्ध में बदल गई। उस समय, अरुण अहमदनगर में युवा अधिकारियों के साथ प्रशिक्षण ले रहे थे, वहाँ से उन्हें अग्रिम मोर्चे पर भेज दिया गया।

वह जिस वक्त रेजिमेंट में शामिल हो गए, उससे कुछ दिन पहले ही उन्होंने अपना 21वाँ जन्मदिन मनाया था।

वह अपने गोल्फ क्लब साथ लेकर चलते थे, यह बात उनके लिए मशहूर है। जब उनसे पूछा गया कि क्या वह युद्ध के मैदान में गोल्फ खेलेंगे, तो उन्होंने कहा, “सर, मैं लाहौर में गोल्फ खेलने की योजना बना रहा हूँ। और मुझे यकीन है कि युद्ध जीतने के बाद वहाँ एक डिनर नाइट होगी, इसलिए मुझे ब्लू ड्रेस की भी जरूरत होगी।”

हल्के फुल्के मजाक में उन्होंने ये बात अपने दोस्त से कही थी। उस वक्त वो नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर अपनी ट्रेन का इंतजार कर रहे थे। स्टेशन पर उनकी माँ उन्हें विदा करने पहुँची थीं।

पहला युद्ध, अंतिम मोर्चा

जब 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध छिड़ा तो पश्चिमी क्षेत्र में उनके ब्रिगेड की तैनाती हुई। वे 17 पूना हॉर्स के 47वीं इन्फैंट्री ब्रिगेड का हिस्सा थे, जिसे ‘ब्लैक एरो’ ब्रिगेड भी कहा जाता है। इसकी तैनाती सियालकोट के पास शकरगढ़ बल्ज में हुई। दिसंबर तक ब्रिगेड ने पाकिस्तानी क्षेत्र में बसंतर नदी पर पुलहेड स्थापित करने में सफल रहा।

अमेरिकी पैटन टैंकों से लैस पाकिस्तान के13वीं लांसर्स रेजिमेंट की बख्तरबंद सेना ने पुल को ध्वस्त करने के मकसद से हमला कर दिया। जरपाल गाँव में भारत ने जो पुल बनाया था, उसके पास धुआँ उठ रहा था। पाकिस्तानियों की कोशिश थी कि इस पुल को नष्ट कर दिया जाए, ताकि भारतीय सेना का आगे बढ़ना रुक जाए।

जरपाल पर कब्जा जमाए पूना हॉर्स स्क्वाड्रन उस वक्त भारी दबाव में था और उसने तत्काल अतिरिक्त सहायता की माँग की। जब लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल ने रेडियो पर संकट की सूचना सुनी, तो उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहट के युद्धग्रस्त स्क्वाड्रन को मज़बूत करने के लिए अपने टैंकों की टुकड़ी के साथ आगे बढ़ने की पेशकश की। हालाँकि उस वक्त वे रिज़र्व अधिकारी थे। अरुण ने अपने सेंचुरियन MK7 टैंक से युद्ध का नेतृत्व किया। इस टैंक का नाम रेजिमेंट ने बाद में फामागुस्टा रख दिया।

जैसे ही अरुण की छोटी टुकड़ी युद्ध में कूदी, बसंतर नदी पार करते समय वे दुश्मन की भारी गोलाबारी की चपेट में आ गए। पाकिस्तानी सैनिकों ने एंटी-टैंक गन और मशीन-गन बंकरों के साथ अपनी जगह बना ली थी, जो अभी भी मज़बूती से टिके हुए थे।

अरुण और उनके साथियों के लिए समय बहुत महत्वपूर्ण था। अगर पाकिस्तानी बख्तरबंद हमले को तुरंत नाकाम नहीं किया गया, तो भारतीय पुल का मुख्य द्वार ढह सकता था। अरुण बेहद साहस के साथ आगे बढ़े और दुश्मन के उन मज़बूत ठिकानों पर हमला करने का आदेश दिया, जो उनके रास्ते में बाधा बन रहे थे। उनके टैंक दहाड़ते हुए आगे बढ़े और पाकिस्तानी बंकरों पर धावा बोल दिया।

अरुण की छोटी-सी टुकड़ी ने दुश्मन की सुरक्षा को ध्वस्त कर दिया था। तोपों के ठिकानों को ध्वस्त कर दिया और यहाँ तक कि कुछ दुश्मन सैनिकों को भी पकड़ लिया। इन नज़दीकी मुठभेड़ों के दौरान अरुण के साथी कमांडर बलिदान हो गए। हालाँकि, अरुण ने आगे बढ़ना जारी रखा।

उनकी आक्रामक कार्रवाई और साहसिक नेतृत्व ने दुश्मन की किलेबंदी को बेअसर कर दिया। उन्होंने समय रहते बी स्क्वाड्रन से संपर्क किया, क्योंकि पाकिस्तानी टैंक अपने शुरुआती हमले के बाद संभवतः भारतीय जवाबी कार्रवाई से घबराकर क्षण भर के लिए पीछे हट गए थे।

हालाँकि लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई थी। पाकिस्तानी बख्तरबंद सैनिकों ने एक बार फिर हमला कर दिया। उनका मुकाबला लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल, कैप्टन वी. मल्होत्रा ​​और लेफ्टिनेंट अवतार अहलावत की अगुवाई वाले भारतीय टैंकों के कब्जे वाले क्षेत्र पर था। इसके बाद जो हुआ, वह युद्ध की सबसे भीषण टैंक मुठभेड़ों में एक माना जा सकता है।

भारतीय टैंक और गोला-बारूद कम थे, फिर भी वीर डटे रहे। फटते हुए गोले और जलते हुए ढाँचों के बीच सीमा के नजदीक भयंकर लड़ाई हुई। इस लड़ाई को टैंकों के बीच लड़ी गई सबसे घातक लड़ाई में से एक माना जाता है। खेत्रपाल और उनके साथियों ने एक के बाद एक कई दुश्मन टैंकों को नष्ट कर दिया। इस भीषण युद्ध में 10 पाकिस्तानी टैंकों को नष्ट कर दिया गया, जिनमें से चार को अकेले लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल के नष्ट किया था।

दुश्मन की बढ़ती संख्या का असर साफ़ दिख रहा था। लेफ्टिनेंट अहलावत के टैंक पर सीधा हमला हुआ और वह बर्बाद हो गया। कैप्टन मल्होत्रा ​​के टैंक की मुख्य तोप जाम हो गई, जिससे वह फायर नहीं कर पा रहा था। उस महत्वपूर्ण आधे घंटे तक अरुण खेत्रपाल पाकिस्तानी हमले के रास्ते में अकेले खड़े रहे, अपने क्षेत्र में कार्यरत आखिरी टैंक होने के बावजूद भारी चुनौतियों का सामना करते हुए भी वे अडिग थे।

अत्यंत साहस के साथ 21 वर्षीय अरुण ने अकेले ही लड़ाई जारी रखी। उनका टैंक फामागुस्टा वन-टैंक आर्मी की तरह बन गया, जिसने दुश्मन के बख्तरबंद बेड़े के एक पूरे स्क्वाड्रन से सीधी लड़ाई लड़ी। अरुण का संकल्प अटल था। उनकी निगरानी में एक भी दुश्मन टैंक को आगे नहीं बढ़ने दिया जाएगा।

इस बीच फामागुस्टा पर दुश्मन का एक गोला गिरा और उसमें आग लग गई। इस हमले में अरुण घायल हो गए। उनके स्क्वाड्रन लीडर ने खतरे को भाँप लिया और उन्हें जलते हुए टैंक को छोड़ने का आदेश दिया। अरुण ने पीछे हटने से इनकार कर दिया। रेडियो पर उन्होंने एक संदेश भेजा, जो अमर हो गया। उन्होंने कहा, “नहीं महोदय, मैं अपना टैंक नहीं छोड़ूँगा। मेरी मुख्य तोप अभी भी काम कर रही है और मैं इन बा$#%र्स को मार गिराऊँगा।”

फिर उन्होंने आगे दिए जाने वाले आदेशों को न सुनते हुए अपना रेडियो हेडसेट उतार दिया और लड़ाई जारी रखी। अपने शब्दों के अनुसार गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद अरुण ने गोलीबारी जारी रखी। उन्होंने बिल्कुल पास से एक और पाकिस्तानी टैंक को नष्ट कर दिया।

तब तक ये लड़ाई एक-दम आमने सामने की हो चुकी थी। पाकिस्तानी सेना के टैंकों से महज 100 मीटर की दूसरी अरुण के टैंक की थी। आखिरी पाकिस्तानी टैंक को उन्होंने इसी दूरी से नष्ट किया था। लेकिन इसके ठीक बाद उनके टैंक पर सीधा हमला हुआ और उनका फामागुस्टा शांत हो गया। इस हमले में लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल गंभीर रूप से घायल हो गए और फिर उन्होंने अपने टैंक पर ही दम तोड़ दिया।

खेत्रपाल की वीरता ने बसंतर में भारत के लिए दिन बचा लिया। जब तक वह शहीद हुए, पाकिस्तानी आक्रमण टूट चुका था। दुश्मन का एक भी टैंक उस स्थिति में नहीं था कि वह पुल पार कर सके। दुश्मन को वह सफलता नहीं मिली, जिसकी उसे बेसब्री से तलाश थी। उनके असाधारण वीरतापूर्ण रुख ने शेष भारतीय सैनिकों को प्रेरित किया, जिन्होंने सभी मोर्चों पर पाकिस्तानी सेना को खदेड़ते हुए लड़ाई जारी रखी।

बसंतर का युद्ध भारत की निर्णायक जीत के साथ समाप्त हुआ। उसी दिन 16 दिसंबर 1971 क, पाकिस्तान की पूर्वी कमान ने ढाका में औपचारिक रूप से आत्मसमर्पण कर दिया, जिससे बांग्लादेश का निर्माण हुआ। लेकिन यह जीत एक भारी कीमत पर मिली। 13 दिनों तक चले इस संघर्ष में भारत ने कई बहादुर सैनिकों को खोया, जिनमें सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल भी शामिल थे। उन्होंने 21 साल में बसंतर के युद्धक्षेत्र में अपने प्राण न्यौछावर कर दिए।

एक नायक की विरासत

सेकेंडरी लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल को उनके “निडर साहस, दृढ़ संकल्प और सर्वोच्च बलिदान” के लिए मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। आधिकारिक प्रशस्ति पत्र में कहा गया है कि उनके अदम्य साहस ने दिन बचा लिया। दुश्मन के बख्तरबंद हमले को निर्णायक रूप से विफल कर दिया गया और दुश्मन का एक भी टैंक उनके क्षेत्र से होकर नहीं गुजरा पाया।

इस युवा अधिकारी ने कर्तव्य की सीमा से कहीं बढ़कर ‘दुश्मन के सामने नेतृत्व, दृढ़ता और असाधारण साहस’ का प्रदर्शन किया। अरुण खेत्रपाल ने अपना नाम इतिहास में दर्ज करवाया। परमवीर चक्र पाने वाले अब तक के सबसे कम उम्र के व्यक्ति बन गए और आज भी हैं।

अरुण खेत्रपाल की विरासत कई मायनों में अनोखी है। उस युद्ध के दौरान अपनी क्रूरता और निडरता के सम्मान में उन्हें “शेर-ए-बसंतर” उपनाम मिला, जिसका अर्थ है बसंत का बाघ। सेना के अधिकारी और जवान गोलाबारी के बीच उनकी अदम्य बहादुरी की कहानी से प्रेरणा लेते रहते हैं।

ऐसा माना जाता है कि उस दिन पाकिस्तानी टैंक इकाई के कमांडर, मेजर ख्वाजा नासर ने खेत्रपाल के टैंक पर घातक गोली चलाई थी। यहाँ तक कि वे भी उस शहीद भारतीय नायक का सम्मान करने लगे। दशकों बाद अरुण के पिता ब्रिगेडियर एमएल खेत्रपाल ने उस पाकिस्तानी अधिकारी से मुलाकात की, जो युद्धभूमि में अरुण के सामने था और उसकी गोलीबारी से ही अरुण ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। उन्होंने अरुण की वीरता की गाथा उनके पिता को बताई और अपना सम्मान प्रदर्शित किया।

सेंचुरियन टैंक फामागुस्टा (सीनियर नंबर- आईसी 202) बाद में बरामद किया गया। खेत्रपाल के इस ‘प्यार’ की बाद में मरम्मत कराई गई। यह अहमदनगर के आर्मर्ड कॉर्प्स सेंटर एंड स्कूल में उनकी वीरता के गौरवशाली अध्याय के रूप में संरक्षित किया गया।

(फोटो साभार- immortalsacrifice/FB)

सेकेंड लेफ्टिनेंट खेत्रपाल का स्मारक युद्ध के मैदान के बाहर भी मौजूद हैं। 1971 युद्ध की 50वीं वर्षगांठ पर 2021 में अरुण खेत्रपाल और 1971 के अन्य नायकों के सम्मान में जम्मू के सांबा जिले के वीर भूमि पार्क (बसंतर युद्धक्षेत्र के पास) में एक नए युद्ध स्मारक का अनावरण किया गया।

नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर, भारत के महानतम युद्ध नायकों के बीच परम योद्धा स्थल गैलरी में अरुण खेत्रपाल की एक कांस्य प्रतिमा स्थापित की गई है। एनडीए भी अपने सबसे प्रतिभाशाली और बहादुर पूर्व कैडेटों में से एक के रूप में उन्हें याद करता है।

करीब 54 बरस बीत चुके हैं, लेकिन अरुण की वीरता की गाथा आज भी भारत को प्रेरित करती है। अब उनकी जीवन गाथा आगामी फिल्म ‘इक्कीस’ के साथ सिनेमा के रूप में दर्शकों तक पहुँचने वाली है। श्रीराम राघवन द्वारा निर्देशित और मैडॉक फिल्म्स द्वारा निर्मित आगामी फिल्म ‘इक्कीस’ (21) में उन वीरता भरे पलों को फिर से जीवंत किया गया है। इस फिल्म में बॉलीवुड अभिनेता अमिताभ बच्चन के पोते अगस्त्य नंदा अरुण की भूमिका निभा रहे हैं, जबकि दिग्गज अभिनेता धर्मेंद्र ब्रिगेडियर एम. एल. खेत्रपाल की भूमिका में हैं। फिल्म का ट्रेलर रिलीज हो चुका है।

(ये लेख मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई है। इसे पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें)

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