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शिक्षा की ब्रेनवॉशिंग इंडस्ट्री, ब्रेनवॉश्ड बच्चे व अभिभावक… आपके ही घर की कहानी है ‘His Story Of इतिहास’, समझा देती है सरकार और ‘सिस्टम’ में अंतर

“क्या सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध से व्यथित होकर बौद्ध धर्म अपनाया?”“क्या अकबर सचमुच महान था?”“क्या टीपू सुल्तान स्वतंत्रता सेनानी था?”“क्या औरंगज़ेब ज़िंदा पीर है?”“क्या वास्को डा गामा ने भारत की ‘खोज’ की?”“क्या इस्लामी आक्रांताओं ने भारत पर 1000 वर्ष राज किया?”“क्या सती प्रथा भारत की विधवाओं के लिए अनिवार्य था?”“क्या विज्ञान व गणित के क्षेत्र में भारत का कोई योगदान नहीं है?”“क्या स्वस्तिक एक नाजी प्रतीक है?”“क्या भारत में बिरयानी बाहर से आया?“

इन सवालों के हमने अपनी पाठ्यपुस्तकों में क्या जवाब पढ़ा है, ये हमें भी मालूम है और आपको भी। लेकिन, क्या वो जवाब सही हैं? या फिर सच्चाई कुछ और है, जिसे व्यवस्थागत ढंग से हमसे छिपाया गया? कई पीढ़ियों को भ्रम में रखा गया? हमारे बच्चों में अपने ही देश और उसकी संस्कृति के प्रति हीन भावना भर दी गई? ‘His Story Of इतिहास’ एक ऐसी फ़िल्म है जो इन्हीं सवालों के जवाब तलाशती है।

आगे बढ़ने से पहले फ़िल्म के बारे में बता दें। फ़िल्म में सुबोध भावे मुख्य भूमिका में हैं, सारी कहानी इन्हीं के द्वारा निभाए गए फिजिक्स के शिक्षक के किरदार पर आधारित है। मराठी में सुबोध भावे लंबे समय से सक्रिय हैं, कई अवॉर्ड्स जीत चुके हैं। थिएटर बैकग्राउंड से आते हैं, ऐसे में उनके अभिनय को लेकर बहुत कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। उनके अलावा वरिष्ठ अभिनेता योगेंद्र टीकू इस फिल्म में इतिहास के प्रोफेसर के किरदार में हैं। उन्हें कई फ़िल्मों में हम और आप देख चुके हैं। हम चाहेंगे कि आप थिएटर में जाकर ही इस फ़िल्म को देखें, इसीलिए इस समीक्षा व विश्लेषण में हम कहानी नहीं खोलेंगे। कम बजट की फ़िल्म है, काफ़ी संघर्ष और मेहनत करके बनाई गई है – हमारा कर्तव्य है इसका मान रखना। संघर्ष इसीलिए, क्योंकि इस फ़िल्म का विषय ऐसा है कि लगभग 60 एक्टर्स ने इसे रिजेक्ट कर दिया था। फ़िल्म के निर्देशक व निर्माता हैं मनप्रीत सिंह धामी, जिन्होंने ‘पंचकर्मा फिल्म्स’ के बैनर तले इसे बनाया है।

एक बड़ी समस्या को खँगालती है ‘His Story Of Itihaas’

फ़िल्म सच्ची घटनाओं पर आधारित है, लेखक व विश्लेषक नीरज अत्री की पुस्तक ‘ब्रेनवॉश्ड रिपब्लिक’ अगर आपने पढ़ी है, तो आपको पता है कि फ़िल्म में आप क्या देखने वाले हैं। नीरज अत्री लंबे समय से हमारे पाठ्यपुस्तकों में हुई मिलावट के विरुद्ध आवाज़ उठाते रहे हैं। उन्होंने बच्चों को पढ़ाए जा रहे कई तथ्यों को लेकर NCERT से सवाल पूछा, जवाब में बोर्ड कोई भी सबूत या स्रोत पेश नहीं कर पाया। उन्होंने एक पूरी की पूरी किताब लिख डाली। YouTube पर अपने चैनल ‘पॉलिटिकली इनकरेक्ट’ के जरिए भी वो जागरूकता फैलाते रहते हैं।

चलिए, वापस लौटते हैं फ़िल्म पर। एक संवेदनशील विषय और वास्तविक घटनाओं पर आधारित होने के बावजूद ये कभी भी आपको बोर नहीं होने देती है। वामपंथी इतिहास प्रोफेसरों व लेखकों के जो किरदार हैं, वो आपको वास्तविक व देखे-सुने हुए लगेंगे। हाँ, कई लोगों को ये पहली बार पता चलेगा कि कैसे बच्चे और अभिभावक इनके जाल में फँसते चले जाते हैं। फ़िल्म में 2 परिवारों और उनके बच्चों की कहानी समानांतर चलती रहती है – एक समृद्ध परिवार है और एक अपेक्षाकृत ग़रीब। फ़िल्म ये दिखाने में सफल रही है कि जिस समस्या को उसने एक्स्प्लोर किया है, उससे प्रभावित होने वालों में क्लास या लिंग का कोई भेद नहीं है।

फ़िल्म व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्ष है, ललकार है, व्यवस्था बदलने के बाद जो व्यवस्था बनती है – उस नई व्यवस्था की लाचारी है। ‘His Story Of Itihaas’ आपके घर की कहानी है। बच्चों को ‘Sit करो’ और ‘Eat करो’ कहने वाली ब्रेनवॉश्ड माँओं की कहानी है। बैंक से ऋण का बोझ अपने सिर पर लादकर बच्चों को मिशनरी स्कूल में पढ़ाने वाले उन ब्रेनवॉश्ड पिताओं की कहानी है, जो इस तनाव में अपने ऊपर BP और शुगर जैसी बीमारियों को हावी कर लेते हैं। स्वस्तिक को नाजी प्रतीक समझकर इससे घृणा करने वाली ब्रेनवॉश्ड बच्ची की कहानी है। कूल दिखने के चक्कर में पश्चिमी सभ्यता के आगोश में जाकर ईसाई धर्मांतरण की तरफ बढ़ रहे ब्रेनवॉश्ड किशोर की कहानी है। ये अपने ही देश व समाज को हीन भावना से देखने वाले एक ब्रेनवॉश्ड IAS अधिकारी की कहानी है।

ये एक ब्रेनवॉशिंग इंडस्ट्री की भी कहानी है। वो इंडस्ट्री, जिसमें बड़ी बिंदी वाले गैंग की महिला एक्टिविस्ट है जो अपने लिखे को ही अकाट्य सत्य मानती है और उसे कोई काट दे तो इसे ‘Rant’ कहती है। वो इंडस्ट्री, जिसमें मौलानाओं के नैरेटिव को बनाए रखने के लिए मंदिर की जगह को मस्जिद बताने वाला इतिहासकार होता है। वो इंडस्ट्री, जिसमें सही इतिहास पढ़ाने वाले एक प्रोफेसर को उसकी भाषा को लेकर बेइज्जत किया जाता है। वो इंडस्ट्री, जिसमें तमाम बदलावों की बात करके सरकार में पहुँचने वाले नेता भी लाचार हो जाते हैं। वो इंडस्ट्री, जिसने सरकार पर दबाव बनाने के लिए सड़क से लेकर संसद और विश्वविद्यालयों तक तमाम तिकड़म ढूँढ रखे हैं।

अछूत माने जाने वाले विषयों पर अब बन रही हैं फ़िल्में

मैं कोई तकनीकी समीक्षा नहीं करने जा रहे, क्योंकि बहुत हद तक ये फ़िल्म इससे परे है। कहानी दिल्ली-नोएडा में सेट है, ऐसे में विज़ुअल्स के मामले में बहुत अधिक स्कोप बनता भी नहीं है। कहानी घरों, स्कूलों और विश्वविद्यालयों के भीतर ही घूमती रहती है, यदा-कदा एक गुरुद्वारे में पहुँचती है। इसके पीछे भी एक सन्देश है।

पहले जिन विषयों को अछूत माना जाता था, आज उनपर फ़िल्में बन रही हैं – ये अपने-आप में बहुत बड़ी बात है। 2019 में ‘द कश्मीर फाइल्स’ के साथ जो सिलसिला शुरू हुआ था, वो अब ‘छावा’ और ‘हिज स्टोरी ऑफ इतिहास’ तक पहुँच चुकी है। शायद अगर हमें इतिहास सही से पढ़ाया जाता, तो ‘द कश्मीर फाइल्स’ और ‘छावा’ जैसी फ़िल्मों की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। ये फिल्म उसी ‘ब्रेनवॉशिंग इंडस्ट्री’ की पोल खोलती है।

“सरकार उनकी है, पर सिस्टम आज भी हमारा है” – ‘The Kashmir Files’ का ये डायलॉग ‘His Story Of Itihaas’ देखने के बाद और प्रासंगिक लगने लगता है। ख़ासकर अकादमिक व क्रिएटिव जगत में आज भी उनका कब्ज़ा है, जो भारत से जुड़े हर सकारात्मक पक्ष को छिपाने या धूमिल करने की जुगत में लगे रहते हैं। इस विषय पर सिर्फ़ एक फ़िल्म से काम नहीं चलेगा, हमें कई फ़िल्में चाहिए। समस्या इतनी बड़ी है कि शायद एक प्रयास से काम न चले।

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